"इंदिरा के नाम पर वार, या मोदी सरकार पर प्रहार: क्या ये इतिहास की ओट में वर्तमान को कमजोर करने की साज़िश है
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✍️लेखक :वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार
नई दिल्ली:- भारत और पाकिस्तान के बीच हालिया तनाव और रणनीतिक हालिया फैसलों और घटनाक्रमों ने हर भारतीय के मन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। कई लोगों का गुस्सा वाजिब है, फैसलों ने देश के जनमानस में बहुत सी भावनाएँ जगा दी हैं। कहीं आशा है, कहीं क्रोध और कहीं भ्रम। और उनका मानसिक रूप से असंतुलित होना स्वाभाविक भी है।
लेकिन इन सबके बीच सबसे ज़रूरी सवाल है — क्या हमअपने देश के प्रधानमंत्री पर सिर्फ एक फैसले से भरोसा खो सकते हैं, जिसने अब तक देश की सुरक्षा और अस्मिता के लिए निर्णायक कदम उठाए हैं? लेकिन इस सबके बीच, एक बात साफ़ समझनी चाहिए – किसी एक फैसले से हम उस प्रधानमंत्री पर संदेह नहीं कर सकते, जिस पर हमने सालों से भरोसा किया है।
पाकिस्तान की बौखलाहट और भारत की रणनीति
पाकिस्तान पिछले कुछ दिनों से लगातार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रहम की भीख मांग रहा है। इस सबके बीच भी उसे करारा जवाब मिला। भारत की ओर से साफ़ संदेश दिया गया है कि आने वाले समय में किसी भी आतंकी हमले को "आतंकी हमला" नहीं, बल्कि "युद्ध का ऐलान" माना जाएगा। इसका मतलब है कि यदि भविष्य में कोई आतंकी घटना होती है, तो जवाब भी सीधा युद्धस्तर पर दिया जाएगा।
डिप्लोमेसी के पीछे की डील्स
बहुत से लोग यह मान रहे हैं कि भारत ने अमेरिका के दबाव में आकरअचानक भारत पीछे हट गया। लेकिन ये बात ग़लत है भारत ने साफ शब्लेदों में अमेरिका को कह दिया है की हमे किसी मध्यस्ता की जरुरत नहीं है अगर पाकिस्तान गोली चलाएगा तो हम गोला चलाएंगे . डिप्लोमेसी केवल बयानबाज़ी नहीं होती। राजनीति में हर निर्णय की सार्वजनिक घोषणा नहीं होती। आज 12 तारीख को भारत-पाक बैठक से यह स्पष्ट होता है कि कुछ रणनीतिक समझौते या तो हो चुके हैं या हो सकते हैं, जिनके नतीजे आगे स्पष्ट होंगे।
इंदिरा गांधी से नरेंद्र मोदी तक: नेतृत्व की विरासत
इस समय शोशल मिडिया पर इंदिरा गाँधी को तस्वीर कुब ट्रेंड कर रही है इंदिरा गांधी ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को निर्णायक शिकस्त दी थी और बांग्लादेश का जन्म हुआ। यह भारत के लिए गर्व और पाकिस्तान के लिए ऐतिहासिक हार थी। लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि तब की परिस्थितियाँ अलग थीं — दुश्मन की पहचान स्पष्ट थी, अंतरराष्ट्रीय राजनीति सीमित प्रभाव में थी।
आज नरेंद्र मोदी का नेतृत्व उस जटिल दुनिया में है जहाँ डिप्लोमेसी, सोशल मीडिया, आतंकवाद और वैश्विक दबाव — सब एक साथ काम करते हैं। ऐसे में निर्णायक नेतृत्व सिर्फ युद्ध से नहीं, रणनीतिक संतुलन से भी परखा जाता है।
लेकिन आइए सच का सामना करें — आज की पीढ़ी में से बहुत कम लोगों ने 1971 की लड़ाई का वह दौर अपनी आंखों से देखा है। हमारे लिए वह बस किताबों के पन्नों या बुजुर्गों की बातों में दर्ज एक गौरवशाली अतीत है।
हम उस पीढ़ी से हैं जिसने अपने स्कूल के दिनों में संसद पर हमला देखा, मुंबई की गलियों में गोलियां चलती देखीं, और पुलवामा में जवानों की लाशें देखीं। हमने खून बहते देखा, लेकिन बहुत कम बार देखा कि कोई सरकार उसका मुँहतोड़ जवाब देती हो।
पहली बार ऐसा हुआ कि सरकार ने एक्शन लिया — Surgical Strike, Balakot Air Strike — और आतंकवाद को सिर्फ फाइलों तक सीमित नहीं रहने दिया। यही कारण है कि आज की युवा पीढ़ी एक्शन चाहती है, बयान नहीं।
हमारे भीतर गुस्सा है, दुख है, पर सबसे ज्यादा अपेक्षा है — एक ऐसे नेतृत्व से जो सिर्फ आश्वासन न दे, बल्कि उसका पालन भी करे। यही वजह है कि जब कोई सरकार जवाब देती है, तो हमें लगता है कि हमारी पीड़ा को आवाज़ मिली है।
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मोदी सरकार बनाम कांग्रेस सरकार: सोच और सरोकार की टकराहट
आज की सरकार को समझने के लिए हमें पिछली सरकारों के कार्यों और नीतियों से तुलना करनी होगी। आज जब कोई सनातनी हिंदू अपने धार्मिक और सांस्कृतिक अधिकारों की बात करता है, तो उसे 'कट्टरपंथी' कह दिया जाता है, जबकि कांग्रेस के शासन में वर्षों तक हिन्दुओं के साथ भेदभाव और मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति चलाई गई।
क्या वाकई नेहरू "पंडित" थे या हिन्दू हितैषी नेता थे,जो हिन्दू होकर वोट बैंक की राजनीती के लिए उन्होंने हिन्दू समाज को हाशिए पर ढकेलकर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नींव रखी? जब उन्होंने हर मौके पर हिन्दुओं को "सेकुलरिज़्म" के नाम पर चुप रहने को मजबूर किया?
आज मोदी सरकार ने उन सभी अन्यायपूर्ण कानूनों को बदला है जो हिन्दुओं के अधिकारों को सीमित करते थे। अनुच्छेद 370, तीन तलाक, सीएए, और राम मंदिर जैसे मुद्दों पर निर्णायक फैसले लेती है, तो यह उसी संतुलन की वापसी है जिसकी हिंदू समाज को लंबे समय से प्रतीक्षा थी। अगर यह सरकार न होती, तो आज हम पाकिस्तान और बांग्लादेश में रहने वाले हिन्दुओं जैसी स्थिति में होते।
भीतर-बाहर के दुश्मनों से सावधान रहिए
भारत आज केवल सीमाओं पर ही नहीं, बल्कि विचारों और सूचनाओं की जंग में भी संघर्ष कर रहा है। देश को दो दिशाओं से खतरा है — बाहर से आने वाले दुश्मनों से और भीतर छिपे वैचारिक आतंकवादियों से।
बाहरी खतरा: सीमा पार से शत्रुता
1. पाकिस्तानी घुसपैठिए:
- दशकों से पाकिस्तान की नीति रही है कि वह भारत में आतंकवाद को एक रणनीति के तौर पर इस्तेमाल करे।
- जम्मू-कश्मीर में LOC पार से घुसपैठ, हथियार सप्लाई और ड्रग्स के ज़रिये यंग जनरेशन को बर्बाद करना – ये सब खुला युद्ध हैं, बस बिना घोषणा के।
- हाल ही में ड्रोन के ज़रिये हथियार गिराना, टनल से घुसपैठ करना और sleeper cells को activate करना एक नया पैटर्न बन गया है।
2. रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठिए:
- ये वो लोग हैं जो बिना वैध दस्तावेज़ भारत में प्रवेश करते हैं, और फिर धीरे-धीरे शहरों में बस जाते हैं।
- दिल्ली, हैदराबाद, पश्चिम बंगाल, असम और जम्मू में इनकी बड़ी आबादी बन गई है।
- ये कई बार अपराधों में लिप्त पाए गए हैं, फर्जी वोटर ID और राशन कार्ड बनवाकर देश के लोकतांत्रिक ढांचे को भी नुकसान पहुंचाते हैं।
यही कारण है कि NRC और CAA जैसे कानूनों की जरूरत पड़ी। इन्हें "मानवाधिकार" के नाम पर विरोध करने वाले भूल जाते हैं कि ये राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है।
भीतरी खतरा: वैचारिक घुसपैठ और दुष्प्रचार
1. सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और एक्टिविस्ट चेहरे:
- जैसे ध्रुव राठी, नेहा सिंह राठौर, रविश कुमार और ना जाने कितने नाम हैं जो तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं ।
- ये लोग अक्सर आतंकियों के मारे जाने पर “ह्यूमन राइट्स” की बात करते हैं, लेकिन सैनिकों की शहादत पर चुप्पी साध लेते हैं।
2. एजेंडा-चालित पत्रकारिता और यूट्यूब पत्रकार:
- कुछ पत्रकार संस्थानों ने राष्ट्रविरोधी ताक़तों को platform दे दिया है।
- उदाहरण: जब राम मंदिर पर कोर्ट ने फैसला सुनाया, इन चेहरों ने कहा "न्यायपालिका झुकी है", जबकि जब हिजाब विवाद पर कोर्ट ने सेक्युलर फैसला दिया तो उसकी तारीफ की गई।
3. न्यायपालिका को साम्प्रदायिक रंग देना:
- भारत के लोकतंत्र में न्यायपालिका एक स्तंभ है। लेकिन जब भी फैसला उनके एजेंडे के विरुद्ध आता है, ये लोग उसे हिंदुत्व या बहुसंख्यकवाद से जोड़ने लगते हैं।
- इससे आम जनता में न्यायपालिका पर अविश्वास पैदा होता है – जो लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है।
इनका असली मकसद क्या है?
- देश की एकता, अस्मिता और आत्मविश्वास को तोड़ना।
- युवा पीढ़ी को यह विश्वास दिलाना कि “देश में सब कुछ गलत हो रहा है”, जिससे वे राष्ट्रवाद से विमुख हो जाएं।
- भारत को वैश्विक मंचों पर अस्थिर, असहिष्णु और धार्मिक रूप से विभाजित दिखाना।
लेकिन समाधान क्या है?
सोशल मीडिया पर सच को फैलाना, न कि सिर्फ रिएक्शन देना।
राष्ट्रवादी विचारधारा को पढ़ें, समझें और तर्क के साथ प्रस्तुत करें।
देश के खिलाफ झूठ फैलाने वालों को बेनकाब करें — तथ्यों, कानून और तर्क के साथ।
भरोसे की असली परीक्षा
आज सोशल मीडिया पर कई लोग जो खुद को ‘मोदी भक्त’ कहते थे, अब सरकार के खिलाफ बोलने लगे हैं। सवाल यह है कि क्या आपका भरोसा इतना कमजोर है कि एक फैसले से हिल जाए? राजनीति में हर दिन युद्ध नहीं हो सकता – कई बार पीछे हटना भी बड़ी रणनीति का हिस्सा होता है।
हम एक ऐसी पीढ़ी से हैं जिसने केवल आतंकी हमले देखे हैं, पर शायद पहली बार जवाबी कार्रवाई भी देखी है। ऐसे में यह भरोसा रखना जरूरी है कि निर्णय रणनीतिक सोच से लिए गए हैं, न कि दबाव में।
भारत की तैयारी, पाकिस्तान की चिंता
इन कुछ दिनों में पाकिस्तान को जितना नुकसान हुआ है, उसका भरपाई करने में उसे आने वाले 10–15 साल लग जाएंगे। वहीं भारत इन वर्षों में अपनी रक्षा प्रणाली को और मज़बूत बनाएगा।
इतिहास से सबक, भविष्य की तैयारी
देशभक्ति सिर्फ भावनाओं से नहीं चलती, उसमें स्मृति, समझ और रणनीति शामिल होती है। इंदिरा गांधी ने 1971 में जो नेतृत्व दिखाया था, आज नरेंद्र मोदी वैसी ही संजीदगी के साथ 21वीं सदी की चुनौतियों से जूझ रहे हैं।
हमें चाहिए कि हम सतही आलोचनाओं से ऊपर उठकर दीर्घकालिक सोच रखें और यह समझें कि देश को न सिर्फ दुश्मन से, बल्कि दुष्प्रचार से भी बचाना होगा।
"मोदी है तो मुमकिन है": एक नारा नहीं, एक राष्ट्रवादी विश्वास
"मोदी है तो मुमकिन है" — यह वाक्य सिर्फ चुनावी नारा नहीं है, बल्कि करोड़ों भारतीयों के मन में बैठा एक भरोसा, एक भाव और एक संकल्प है। यह विश्वास है उस नेतृत्व पर, जिसने न केवल भारत को वैश्विक मंच पर एक नई पहचान दी, बल्कि राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए कठिन फैसले भी लिए।
भटकाने की कोशिशें और 'गोदी मीडिया' का शोर
हर बार जब देशहित में कोई बड़ा फैसला लिया जाता है, तो कुछ लोग उसे गोदी मीडिया, प्रचार तंत्र, या भक्ति कहकर खारिज करने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह भी उतना ही ज़रूरी है कि हम यह समझें कि हर आलोचना तार्किक नहीं होती, और हर सवाल राष्ट्रहित में नहीं होता।
आज देश में कुछ टीवी चैनल TRP के लालच में आधी-अधूरी, सनसनीखेज या भ्रामक खबरें परोसते हैं। ये वही मीडिया संस्थान हैं जो 'सबसे तेज़' बनने की होड़ में 'सबसे ग़लत' साबित हो जाते हैं।
वी न्यूज़ की नीति: न कोई एजेंडा, न कोई पक्षपात
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- हम सनसनी नहीं फैलाते, बल्कि जिम्मेदारी से सूचनाओं को जांचते हैं।
- हम किसी विचारधारा के गुलाम नहीं, बल्कि जनता के हित में प्रतिबद्ध पत्रकार हैं।
- हम विरोध करने वालों से डरते नहीं, और न ही प्रशंसा की लालसा में सच्चाई से मुंह मोड़ते हैं।
भारत को चाहिए स्पष्ट सोच, न कि भटके हुए नारे
आज की राजनीति में कई बार भावनाओं को भ्रम में बदला जाता है। लेकिन जनता को चाहिए निर्णयात्मक सोच और प्रमाण आधारित संवाद। जो लोग सिर्फ सोशल मीडिया पर बैठकर 'गोदी मीडिया', 'भक्त मीडिया' जैसे शब्दों से चर्चा को दूषित करते हैं, वो न खुद सोचते हैं, न दूसरों को सोचने देते हैं।
हमें जागरूक बनना होगा, उत्तेजित नहीं।हमें तर्क पर टिकना होगा, अफवाह पर नहीं।
निष्कर्ष: भारत को चाहिए ऐसा मीडिया जो बोले — "देश पहले, टीआरपी बाद में"
"मोदी है तो मुमकिन है" — को समझने के लिए नेतृत्व की ईमानदारी, नीयत और दृष्टि को देखना होगा, न कि सिर्फ शब्दों को।
और यही कारण है कि वी न्यूज़ का भरोसा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है — क्योंकि हम खबर को तोड़ते नहीं, खोलते हैं।
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