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    क्या भारतीय न्यायपालिका के निर्णयों में धार्मिक पक्षपात का भाव है?

    क्या भारतीय न्यायपालिका के निर्णयों में धार्मिक पक्षपात का भाव है?


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    🗓️ प्रकाशन तिथि: 9 मई 2025

    ✍️ सम्पादकीय | We News 24 
    हाल ही में भारतीय संसद के एक सांसद डॉ. निशिकांत दुबे द्वारा दिया गया एक बयान – "अगर इस देश में कोई धर्मयुद्ध भड़काएगा, तो वो सुप्रीम कोर्ट और उसके न्यायाधीश होंगे" – पूरे राजनीतिक और सामाजिक विमर्श में एक नई बहस छेड़ गया है। इस बयान की तीखी आलोचना भी हुई, लेकिन कई बुद्धिजीवियों और विश्लेषकों ने इससे जुड़े सवालों को पूरी तरह खारिज नहीं किया।

    प्रसिद्ध वैज्ञानिक और लेखक आनंद रंगनाथन ने  एक वीडियो बयान जारी कर दुबे का पूर्ण समर्थन किया है। रंगनाथन ने अपनी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में सुप्रीम कोर्ट से 9 सवाल पूछे हैं। वे बहुत महत्वपूर्ण हैं, इसलिए उनका हिंदी में सारांश रूपांतरण नीचे दिया गया है: आनंद रंगनाथन ने इस मुद्दे को तार्किक ढंग से उठाया, बल्कि भारतीय न्यायपालिका की दिशा और प्राथमिकताओं पर नौ ठोस सवाल रखे, जिनका उत्तर आज का भारत अवश्य चाहता है।



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    ⚖️ 1. क्या कश्मीरी हिंदुओं का दर्द समय की सीमा में बंधा है?

    मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हटाने वाला अनुच्छेद 370 समाप्त किया, तो सुप्रीम कोर्ट ने विपक्ष की याचिकाओं पर तुरंत विशेष पीठ बनाकर जल्द सुनवाई की। लेकिन 1990 में कश्मीरी हिंदुओं पर हुए अत्याचारों – जैसे जबरन पलायन, घरों पर कब्जा, मंदिरों का विध्वंस, हत्याएं, बलात्कार, नौकरी से निकालना – पर दायर याचिकाओं को यह कहकर खारिज कर दिया कि "अब बहुत समय हो गया है, हम यह मामला नहीं खोल सकते।" क्या यह दोहरा मापदंड नहीं है? क्या इससे हिंदू समाज में आक्रोश पैदा नहीं होगा? क्या यह धर्मयुद्ध भड़काना नहीं है?” क्या न्याय की कोई एक्सपायरी डेट होती है?


    🕌 2. वक्फ बोर्ड का पक्ष, पर लाखों संपत्तियों पर मौन?

     सुप्रीम कोर्ट को आज वक्फ बोर्ड की चिंता है, लेकिन पिछले 30 वर्षों में वक्फ बोर्ड द्वारा अवैध तरीके से हड़पी गई संपत्तियां, समानांतर न्याय प्रणाली, और कर नहीं भरना – क्या ये सब अदालत को दिखाई नहीं दिए? आज यदि वक्फ कानून के सुधार से इस्लाम खतरे में लगता है, तो क्या हिंदुओं की जमीनों पर मस्जिदें और मकबरे बनाना उचित था? वक्फ बोर्ड ने पिछले 10 वर्षों में 20 लाख हिंदू संपत्तियां कब्जा लीं – इस पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी धर्मयुद्ध नहीं तो और क्या है? समानांतर न्याय प्रणाली और टैक्स छूट पर न्यायपालिका की चुप्पी कहीं हिंदू समाज में गहरी असंतुष्टि तो नहीं जगा रही?


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    ⛪ 3. मंदिरों की आय का राजनीति में प्रयोग?

    हिंदू मंदिरों की आय पर सरकारी नियंत्रण है। , उनकी आय से मदरसों, हज यात्रा, वक्फ बोर्ड, इफ्तार पार्टी, कर्ज आदि पर खर्च किया जाता है। वहीं, हिंदू धार्मिक कार्यों पर रोक, उनकी याचिकाओं को लटकाना, अल्पसंख्यकों को हमेशा प्राथमिकता देना – क्या यह न्याय है? या हिंदू समाज के मन में आक्रोश उत्पन्न करने का एक तरीका? जबकि हिंदू धार्मिक आयोजनों पर रोक या देरी आम बात हो चुकी है। क्या यह संसाधनों के साथ भेदभाव नहीं?

    🎓 4. शिक्षा के अधिकार में धर्म आधारित असमानता?

    हिंदू संस्थानों पर RTE लागू है, जिसमें 25% सीटें आरक्षित करनी होती हैं।शिक्षा के अधिकार के तहत, हिंदू संस्थाओं को 25% सीटें अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित करनी होती हैं। जबकि मुस्लिम और ईसाई संस्थाओं पर कोई ऐसा नियम नहीं। इससे हजारों हिंदू स्कूल बंद हो गए और हिंदू बच्चे दूसरे धर्मों की संस्थाओं में पढ़ने लगे। क्या यह भी धर्मांतरण को बढ़ावा नहीं है? क्या सुप्रीम कोर्ट को यह पक्षपात दिखाई नहीं देता? क्या यह धर्मांतरण को परोक्ष बढ़ावा नहीं?

    🗣️ 5. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या दोहरा मापदंड?

    अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी दोहरी नीति: हिंदुओं की बात हेट स्पीच, और दूसरों की बात फ्री स्पीच मानी जाती है। नूपुर शर्मा ने सिर्फ हदीस का उल्लेख किया – उसे कोर्ट ने हेट स्पीच कहा। लेकिन स्टालिन और अन्य नेताओं ने सनातन धर्म को "रोग" बताया – इन  बयानों पर सुप्रीम कोर्ट मौन रहा। क्या यह अभिव्यक्ति की आज़ादी का संतुलन है या उसका राजनीतिक उपयोग?


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    🎉 6. परंपराएं हिंदू हों तो प्रतिबंध, बाकी सब छूट?

    सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू परंपराओं जैसे दशहरे के बली प्रथा पर रोक लगा दी, लेकिन हलाल, ईद के दौरान सामूहिक पशुहत्या – उस पर कोई सवाल नहीं। जन्माष्टमी पर हांडी की ऊँचाई पर रोक, लेकिन मोहर्रम की हिंसा पर कोई कार्रवाई नहीं। दिवाली के पटाखे पर्यावरण के लिए बुरे, लेकिन क्रिसमस के पटाखे नहीं। क्या यह भेदभाव नहीं? क्या इस चयनात्मक हस्तक्षेप ने न्याय की निष्पक्षता को चोट नहीं पहुंचाई?

    🏛️ 7. प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट – ऐतिहासिक अन्याय?

    प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 को 2019 में कठोर बना दिया गया, ताकि 15 अगस्त 1947 से पहले के धार्मिक स्थलों की स्थिति में कोई बदलाव न किया जा सके। इससे हिंदुओं की प्राचीन मंदिरों को पुनः प्राप्त करने की राह बंद हो गई। राम मंदिर के लिए वर्षों संघर्ष करना पड़ा, बाकी स्थल अब भी कब्जे में हैं। क्या यह ऐतिहासिक अन्याय नहीं? क्या काशी, मथुरा जैसे स्थलों को नजरअंदाज करना सांस्कृतिक अधिकारों की अवहेलना नहीं?

    🕉️ 8. शबरीमाला – श्रद्धा या केवल एक पक्ष का परीक्षण?

    शबरीमाला मामले में भी कोर्ट ने हिंदू भावनाओं को चोट पहुँचाई। कुछ मंदिरों में पुरुषों की, कुछ में महिलाओं की प्रवेश परंपराएं हैं – लेकिन कोर्ट ने केवल हिंदुओं को निशाना बनाया। जबकि इस्लाम में महिलाओं को मस्जिद, कुरान आदि से रोका जाता है, ईसाई धर्म में महिला पादरी नहीं बन सकती – तो उनपर कोई सवाल क्यों नहीं?इस्लाम और ईसाई धर्म की महिलाओं से जुड़ी पाबंदियों पर चुप्पी साधी गई। क्या यह हस्तक्षेप समान रूप से सभी धर्मों पर लागू होता है?


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    🪧 9. शाहीनबाग प्रदर्शन – कानून से परे?

    शाहीनबाग आंदोलन और CAA विरोध में जो दंगे हुए, उस पर भी सुप्रीम कोर्ट की भूमिका एकतरफा थी। सार्वजनिक रास्ता रोकने वाले प्रदर्शन पर कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई। क्या यह कानून का मज़ाक नहीं? और क्या यह भी हिंदू समाज में आक्रोश नहीं बढ़ाता ? जब एक पक्ष के लिए कानून के दायरे को लचीला बनाया जाए, तो बाकी समाज में असंतोष और अलगाव की भावना क्यों नहीं पनपेगी?


    यह लेख किसी संस्था या संस्था के सम्मान पर आक्षेप नहीं, बल्कि लोकतंत्र में न्यायपालिका की जवाबदेही की मांग है। यदि न्यायपालिका निष्पक्ष है, तो उसे हर वर्ग, हर धर्म, हर नागरिक की पीड़ा पर समान रूप से संवेदनशील और उत्तरदायी होना चाहिए।

    भारत में अगर कोई "धर्मयुद्ध" जैसा मनोभाव पनप रहा है, तो वह भाव किसी नेता के भाषण से नहीं, बल्कि संवैधानिक संस्थाओं की असमानता भरी प्रतिक्रियाओं से जन्म लेता है।

    देश को "विभाजन के नहीं", संविधान के सिद्धांतों पर चलाना है।


    ✍️ संपादकीय टीम | We News 24 

    #SupremeCourt #HinduRights #AnandRanganathan #JudicialBias #ConstitutionalDebate #Editorial 

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