उदयपुर फाइल्स पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई: क्या कन्हैयालाल को मिलेगा न्याय?
नई दिल्ली | We News 24
हिंदी सिनेमा में सामाजिक और संवेदनशील मुद्दों पर फिल्म बनाना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जब सत्य को दिखाने की कोशिश होती है, तो अक्सर वो अदालतों की चौखट पर पहुंच जाती है। अभिनेता विजय राज की आने वाली फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ भी इसी राह पर चल रही है, जहां रिलीज़ से महज 12 घंटे पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी।
अब फिल्म के निर्माता गौरव भाटिया ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए कहा है कि "यह फिल्म किसी कल्पना पर नहीं, बल्कि एक सच्ची घटना पर आधारित है – जिसमें दर्जी कन्हैयालाल की निर्मम हत्या को दर्शाया गया है।"
🔍 क्या है उदयपुर फाइल्स का मामला?
2022 में राजस्थान के उदयपुर शहर में कन्हैयालाल साहू की निर्दय हत्या ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। आरोप था कि उन्होंने एक सोशल मीडिया पोस्ट को सपोर्ट किया, जिसके बाद कट्टरपंथी मानसिकता से ग्रसित दो लोगों ने दिनदहाड़े उनकी दुकान में घुसकर गला काट दिया।
निर्माता अमित जानी और निर्देशक तरुण गोयल ने इस घटना को फिल्म ‘उदयपुर फाइल्स’ के माध्यम से परदे पर उतारने की कोशिश की है। लेकिन इसकी रिलीज़ से ठीक पहले हाई कोर्ट ने इस पर स्टे लगा दिया, जिस पर अब कानूनी संघर्ष चल रहा है।
⚖️ क्या देश का न्यायतंत्र सभी को बराबर सुनता है?
इस पूरे मामले में एक बड़ा सवाल ये भी उठता है – कि क्या भारत की अदालतें सच बोलने वालों के पक्ष में खड़ी हैं या नहीं?
अब तक कन्हैयालाल के परिवार को न्याय नहीं मिला, जबकि फिल्म के जरिए उनकी कहानी बताने की कोशिश को भी अदालत द्वारा बाधित किया गया है। इस बीच, एक वर्ग का आरोप है कि न्याय की प्रक्रिया एकतरफा होती जा रही है, और कुछ "विशेष समुदायों के दबाव में" अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कुचली जा रही है।
अब तक कन्हैयालाल साहू के परिवार को न्याय नहीं मिला, जबकि उनके ऊपर आधारित ‘उदयपुर फाइल्स’ जैसी फिल्म, जो उनकी कहानी को समाज के सामने लाना चाहती है, उसे अदालत द्वारा रोका जा रहा है।
इस बीच, न्यायिक प्रक्रिया की निष्पक्षता को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं। एक वर्ग का आरोप है कि भारत की न्याय व्यवस्था अब दोहरी होती जा रही है – एक हिंदू के लिए और दूसरी मुस्लिम के लिए।
ज्वलंत उदाहरण: शर्मिष्ठा पनोली बनाम वजाहत खान मामला
हाल के मामलों में यह धारणा और गहराती है — जैसे कि कोलकाता की युवती शर्मिष्ठा पनोली को सोशल मीडिया पोस्ट के कारण जेल भेज दिया गया, जबकि पत्रकार वजाहत खान, जिन पर देश विरोधी गतिविधियों और साम्प्रदायिक भड़काव के आरोप थे, उन्हें सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल गई।
क्या यह न्यायिक असंतुलन नहीं है?
कई लोग पूछते हैं —
❝क्या भारत में अब न्याय भी धर्म देखकर तय होता है? क्या सच बोलने वालों को जेल और कट्टरता फैलाने वालों को संरक्षण मिलेगा?❞
यदि एक ही संविधान के तहत अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग मानदंड अपनाए जाते हैं, तो यह भारत के संवैधानिक मूल्यों – समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और न्याय पर सीधा प्रहार है।
🎥 फिल्ममेकर्स की दलील: ये घटना सबको पता है, इसमें कुछ भी फर्जी नहीं
वरिष्ठ अधिवक्ता गौरव भाटिया ने सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा है कि "हमारी फिल्म मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों के उल्लंघन को दर्शाती है। इस कहानी में कुछ भी काल्पनिक नहीं है।"
उनका यह भी कहना है कि इस फिल्म का उद्देश्य समाज को आईना दिखाना है, न कि किसी धर्म या समुदाय को निशाना बनाना।
सुप्रीम कोर्ट ने याचिका स्वीकार करते हुए दोबारा सुनवाई की मंजूरी दे दी है। अब सबकी निगाहें इस पर टिकी हैं कि क्या ‘उदयपुर फाइल्स’ को हरी झंडी मिलेगी, या यह सच्ची घटनाओं पर बनी एक और फिल्म अदालत के दायरे में दम तोड़ देगी?
📌 We News 24 की राय
आज जब सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं बल्कि सामाजिक संवाद का माध्यम बन चुका है, तब ऐसी फिल्मों को रोका जाना गंभीर चिंता का विषय है। यदि सत्य बोलने की कोशिश पर प्रतिबंध लगेगा, तो यह लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा प्रहार है। "उदयपुर फाइल्स" पर रोक और कन्हैयालाल साहू के परिजनों को अब तक न मिला न्याय — इस बात की कड़वी याद दिलाता है कि सच्चाई दिखाना इस देश में सबसे बड़ा अपराध बनता जा रहा है। अगर अदालतें भी पक्षपात का रास्ता चुनेंगी, तो आम नागरिक आखिर किस दरवाजे पर न्याय की गुहार लगाएगा?
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