मरी पत्नी प्रेमी संग कर थी नोयडा में ऐश ,निर्दोष पति 4 माह से सड़ रहा है जेल में ,पुलिस की लापरवाही ने खोली न्याय व्यवस्था की पोल
We News 24 :डिजिटल डेस्क » विशेष संवाददाता
मोतिहारी/नोएडा, 30 नवंबर 2025 : बिहार के मोतिहारी जिले से एक ऐसी घटना सामने आई है, जो न केवल कानूनी व्यवस्था की लचक को उजागर करती है, बल्कि पुलिस की लापरवाही और परिवारों के आपसी षड्यंत्रों की काली सच्चाई को भी सामने लाती है। एक निर्दोष पति, रंजीत कुमार, अपनी 'हत्या' हो चुकी पत्नी गुंजा देवी के आरोप में पिछले चार महीनों से जेल की सलाखों के पीछे सड़ रहा था। मोतिहारी पुलिस ने चार्जशीट तक दाखिल कर दी थी, और अदालत में ट्रायल शुरू होने वाला था। लेकिन हकीकत में गुंजा जिंदा थी! वो दिल्ली से सटे नोएडा में अपने प्रेमी के साथ खुशी-खुशी जीवन बिता रही थी। पति के परिजनों की मुखबिरी पर पुलिस ने गुंजा को हिरासत में लिया, लेकिन सवाल ये है कि निर्दोष को जेल में डालने वाली व्यवस्था कितनी विश्वसनीय है?
घटना का पूरा काला चिट्ठा: प्रेमी संग भागी पत्नी, पति पर फर्जी हत्या का केस
यह मामला मोतिहारी के अरेराज थाना क्षेत्र के वार्ड नंबर 10 का है। रंजीत कुमार और गुंजा देवी की शादी को कुछ साल हो चुके थे, लेकिन वैवाहिक जीवन में कलह आम थी। 3 जुलाई 2025 की रात को गुंजा ने पति से झगड़ा किया और घर छोड़ दिया। रंजीत ने तुरंत अरेराज थाने में गुमशुदगी की एफआईआर दर्ज कराई। लेकिन दो दिन बाद गुंजा के पिता ने उल्टा रंजीत पर ही हत्या का आरोप लगा दिया। उन्होंने दावा किया कि रंजीत ने दहेज के लोभ में गुंजा की हत्या कर शव को खपा (नहर) में फेंक दिया। बिना किसी ठोस सबूत के मोतिहारी पुलिस ने रंजीत को मुख्य संदिग्ध मान लिया। दबाव में आकर रंजीत ने एक हफ्ते बाद कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया, और उसे न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया।
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पुलिस ने तलाशी ली, लेकिन कोई शव या सबूत नहीं मिला। फिर भी, परिवार के दबाव और जल्दबाजी में मोतिहारी पुलिस ने चार्जशीट दाखिल कर दी। ट्रायल की तारीख तय हो चुकी थी, और रंजीत को उम्रकैद जैसी सजा का डर सता रहा था। लेकिन असली ट्विस्ट तब खुला जब रंजीत के परिजनों को मुखबिर से खबर मिली कि गुंजा नोएडा में किसी युवक के साथ रह रही है। परिजनों ने इसकी सूचना पुलिस को दी। आधुनिक सर्विलांस (सीसीटीवी और मोबाइल ट्रैकिंग) की मदद से 25 नवंबर 2025 को पुलिस ने गुंजा को उसके प्रेमी के साथ नोएडा से बरामद कर लिया। गुंजा ने कबूल किया कि वो प्रेमी संग नया जीवन शुरू करने के लिए भागी थी, और घरवालों ने बदला लेने के लिए फर्जी हत्या का केस रंजीत पर ठोक दिया।
अब गुंजा को मोतिहारी कोर्ट में पेश किया गया है, और रंजीत की रिहाई की प्रक्रिया चल रही है। लेकिन ये केस खत्म कहां हुआ? ये तो शुरुआत है एक बड़ी बहस की।
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बिहार पुलिस की लापरवाही: बिना सबूत के चार्जशीट, जांच का मजाक?
मोतिहारी पुलिस पर सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है। गुमशुदगी की एफआईआर के दो दिन बाद ही हत्या का केस दर्ज कर लिया गया, लेकिन क्या पुलिस ने गुंजा की तलाश की? क्या सीसीटीवी, मोबाइल लोकेशन या पड़ोसियों से पूछताछ हुई? नहीं! बिना शव, बिना फॉरेंसिक सबूत के चार्जशीट दाखिल कर दी गई। ये लापरवाही नहीं तो क्या है? अगर रंजीत के परिजन मुखबिर न बनते, तो एक बेकसूर को उम्रभर जेल में सड़ना पड़ता। ऐसे में दोषी अधिकारी क्या होंगे? क्या विभागीय जांच होगी? क्या उन पर एक्शन लिया जाएगा, या फिर ये केस फाइलों की धूल में दब जाएगा?
बिहार पुलिस की ये लापरवाही कोई नई नहीं है। राज्य में हर साल सैकड़ों फर्जी केस दर्ज होते हैं, जहां निर्दोष फंस जाते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, 2022 में ही बिहार में 1,057 दहेज हत्या के केस दर्ज हुए, जिनमें से कई बाद में फर्जी साबित हुए। लेकिन दोषी पुलिसकर्मी? वो तो प्रमोशन पा जाते हैं!
अदालत की लचर व्यवस्था: निर्दोष को दोषी, दोषी को निर्दोष कैसे?
भारत की न्याय व्यवस्था पर ये केस एक तमाचा है। रंजीत को बिना ट्रायल के जेल में डाल दिया गया, सिर्फ परिवार की शिकायत पर। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत 'जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार' है, लेकिन यहां क्या? कोर्ट ने चार्जशीट स्वीकार कर ली, ट्रायल की तैयारी हो रही थी, लेकिन कोई बेल आवेदन पर सुनवाई क्यों नहीं हुई? क्यों निर्दोष को सजा मिलने से पहले ही जेल की हवा खानी पड़ी?
ये कोई पहला मामला नहीं। भारत में निर्दोष को फंसा कर दोषी को बचाने के उदाहरण अनगिनत हैं। सबसे कुख्यात है नोएडा का निठारी कांड (2006)। निठारी गांव में 19 बच्चों और युवतियों के शव मिले, लेकिन शुरुआती जांच में मॉनिंदर सिंह पंधेर और सुरिंदर कोली को मुख्य आरोपी बनाया गया। CBI जांच में साबित हुआ कि पुलिस ने सबूत छिपाए, गवाहों को प्रभावित किया। निर्दोष नौकरानी को भी फंसाया गया, जबकि असली दोषी बच निकले। कोर्ट ने पंधेर को दो केसों में दोषी ठहराया, लेकिन बाकी मामले लटके हुए हैं। ये कांड पुलिस की मिलीभगत और अदालत की देरी को उजागर करता है।
एक और उदाहरण: 2022 में बिहार के ही मोतिहारी में एक महिला को 'मृत' घोषित कर पति को जेल भेजा गया, लेकिन वो जालंधर में प्रेमी संग मिली। ऐसे सैकड़ों केस, जहां परिवार का बदला कानूनी हथियार बन जाता है। NCRB डेटा कहता है कि 2022 में 6,459 दहेज मौत के केस हुए, लेकिन 3,499 पुराने केस लंबित हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार में ये संख्या सबसे ज्यादा। निर्दोष जेल में सड़ते हैं, दोषी खुले घूमते हैं। क्यों? क्योंकि जांच कमजोर, अदालतें बोझ तले दबी हैं।
अब क्या? सुधार की गुहार या जारी रहेगा ये सिलसिला?
रंजीत की रिहाई के बाद भी घाव गहरे हैं। परिवार बर्बाद, बच्चे अनाथों जैसे। सरकार को चाहिए:
पुलिस जांच में फॉरेंसिक और डिजिटल ट्रैकिंग अनिवार्य हो।
फर्जी केस पर सख्त सजा, दोषी अफसरों को जेल।
कोर्ट में फास्ट-ट्रैक ट्रायल निर्दोषों के लिए।
ये केस चेतावनी है: कानून अंधा नहीं,
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