क्या सुप्रीम कोर्ट सुपर संसद बन रहा है? उपराष्ट्रपति धनखड़ ने खोली न्यायपालिका की पोल
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📝 लेखक : दीपक कुमार सीनियर पत्रकार
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नई दिल्ली:- जज के घर जला नोट का बंडल मिलने पर ऍफ़आईआर क्यों नहीं "अगर यही घटना किसी आम आदमी के घर हुई होती, तो कार्रवाई रॉकेट से भी तेज होती, पर यहां तो बैलगाड़ी भी नहीं चली।" ये तीखे शब्द भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहे हैं—और निशाने पर है देश की न्यायपालिका। एक बार फिर, लोकतंत्र के तीन स्तंभों की भूमिका और सीमा रेखा को लेकर बहस गरमा गई है।
🔥 जज के घर जले नोट, पर कार्रवाई ठंडी क्यों?
14 मार्च को दिल्ली हाईकोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर से जले हुए नोटों का ढेर मिला। सुप्रीम कोर्ट ने आनन-फानन में एक इन-हाउस जांच कमेटी बना दी, जिसमें तीन जज शामिल हैं। लेकिन आज तक एक भी एफआईआर दर्ज नहीं हुई। जज यशवंत सिन्हा की जगह कोई और होता तो कार्रवाई रॉकेट से भी तेज होती, लेकिन यहां तो बैलगाड़ी की गति से भी नहीं चली। क्या यही है न्यायपालिका
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लेकिन उपराष्ट्रपति धनखड़ का सवाल है —
"क्या यह कमेटी संविधान के तहत वैध है? क्या न्यायपालिका जांच करने का अधिकार रखती है?"
धनखड़ ने कहा कि यह जांच कार्यपालिका का अधिकार क्षेत्र है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमेटी न तो किसी कानून के तहत बनी है और न ही उसकी सिफारिशों की कोई स्पष्ट वैधता है। यह सिर्फ एक ‘आंतरिक दिखावा’ बनकर रह जाती है।
⚖️ न्यायपालिका ‘सुपर सांसद’ नहीं बन सकती – धनखड़ का स्पष्ट संदेश
राज्यसभा के एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा:
"अब हमारे पास ऐसे जज हैं जो कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम करेंगे, और फिर कहेंगे कि उन पर कोई जवाबदेही नहीं है!"
धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट पर आरोप लगाया कि वह राष्ट्रपति को निर्देश देने जैसी भूमिका निभा रही है, जो संविधान के खिलाफ है।
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उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 142 पर निशाना साधा और कहा कि यह अब
"24x7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है, जो लोकतांत्रिक संस्थाओं पर दागा जा रहा है।"
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल को लेकर एक फैसले में राष्ट्रपति से यह अपेक्षा की थी कि वह विधायकों पर समयबद्ध निर्णय लें।
🛑 ‘न्यायपालिका को देश के कानून से ऊपर नहीं रखा जा सकता’
धनखड़ ने चेताया कि लोकतंत्र में सभी संस्थाएं एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायी हैं।
"अब क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट की समयसीमा में फैसले लेने होंगे? अगर नहीं लिए तो वह कानून बन जाएगा? ये लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक संकेत हैं।"
उन्होंने स्पष्ट किया कि —
राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है।
राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और पालन की शपथ लेते हैं।
जबकि जज, सांसद और उपराष्ट्रपति स्वयं संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं।
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बड़ा सवाल: क्या न्यायपालिका की भूमिका सीमित होनी चाहिए?
इस पूरे घटनाक्रम ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं:
क्या सुप्रीम कोर्ट कार्यपालिका और राष्ट्रपति के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप कर रहा है?
क्या इन-हाउस कमेटी जैसी संस्थाएं पारदर्शिता के मानकों पर खरी उतरती हैं?
क्या संविधान में संशोधन की जरूरत है ताकि संस्थाओं की सीमाएं स्पष्ट हो सकें?
निष्कर्ष: संतुलन जरूरी है, टकराव नहीं
लोकतंत्र का संतुलन तभी कायम रह सकता है जब न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका अपनी-अपनी सीमाओं का सम्मान करें। अगर एक स्तंभ 'सुपर पॉवर' बनने लगे, तो लोकतंत्र की नींव हिल सकती है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ की टिप्पणियों ने हमें यही चेतावनी दी है—लोकतंत्र में कोई भी संस्था सर्वोपरि नहीं हो सकती, केवल संविधान ही है।
क्या है अनुच्छेद 142
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को असाधारण शक्तियाँ प्रदान करता है, जिसके तहत वह "पूर्ण न्याय" (Complete Justice) सुनिश्चित करने के लिए कोई भी आवश्यक आदेश या निर्णय पारित कर सकता है। यह प्रावधान न्यायपालिका को कानूनी प्रक्रियाओं की सीमाओं से ऊपर उठकर न्याय करने की स्वतंत्रता देता है।
मुख्य विशेषताएँ:
पूर्ण न्याय का अधिकार:
सुप्रीम कोर्ट किसी मामले में ऐसा आदेश पारित कर सकता है, जो मौजूदा कानूनों से परे हो, लेकिन न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप हो।
उदाहरण: विशाखा गाइडलाइन्स (1997) – यौन उत्पीड़न के खिलाफ दिशानिर्देश बनाना।
कानूनी सीमाओं का अतिक्रमण:
सुप्रीम कोर्ट किसी विशेष मामले में प्रक्रियात्मक बाधाओं (जैसे साक्ष्य का अभाव) को नजरअंदाज कर सीधे न्यायिक हस्तक्षेप कर सकता है।
उदाहरण: 2G स्पेक्ट्रम मामले (2012) में लाइसेंस रद्द करना।
संसदीय कानूनों से ऊपर:
अनुच्छेद 142 के तहत दिया गया आदेश संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को अस्थायी रूप से निलंबित कर सकता है।
प्रमुख उदाहरण:
राम जन्मभूमि मामला (2019): अयोध्या भूमि का शीर्षक रामलला को दिया गया और सरकार को ट्रस्ट बनाने का निर्देश।
कोयला ब्लॉक आवंटन रद्द (2014): 214 कोयला खदानों के आवंटन को अवैध घोषित किया गया।
सबरीमाला मामला (2018): महिलाओं के प्रवेश पर रोक हटाई गई।
आलोचना एवं सीमाएँ:
न्यायिक अतिक्रमण: कुछ विद्वान मानते हैं कि यह प्रावधान न्यायपालिका को कार्यपालिका/विधायिका के क्षेत्र में दखल देने का अवसर देता है।
अस्पष्ट परिभाषा: "पूर्ण न्याय" शब्द की कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं, जिससे न्यायाधीशों के विवेक पर अत्यधिक निर्भरता।
निष्कर्ष:
अनुच्छेद 142 भारतीय न्यायपालिका को एक सक्रिय और न्यायोन्मुखी भूमिका देता है, लेकिन इसका उपयोग संयम से होना चाहिए। जस्टिस कुरियन जोसेफ ने कहा था:
"यह शक्ति समाज के कमजोर वर्गों के लिए 'न्यायिक रक्षा कवच' है, पर इसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।"
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(यह जानकारी संविधान, सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों और विधिक विश्लेषणों पर आधारित है।)
✍️ लेखक परिचय:
दीपक कुमार, एक खोजी सीनियर पत्रकार हैं जो राजनीतिक और संवैधानिक मुद्दों पर पैनी नजर रखते हैं। इनका फोकस सत्ता के हर गलियारे में छिपे सच को जनता के सामने लाना है।
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