"क्या अब वक्त नहीं आ गया कि हम जनसंख्या की नहीं, समस्याओं की जनगणना करें?"
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✍️ वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार के कलम से
भारत 2026 में एक और राष्ट्रीय जनगणना की ओर बढ़ रहा है — लोगों की संख्या, धर्म, भाषा, संपत्ति, नौकरी, शिक्षा आदि के आंकड़े फिर से गिने जाएंगे। लेकिन सवाल ये है — क्या सिर्फ नागरिकों की गिनती से एक राष्ट्र की सेहत का पता चल सकता है? क्या हमें उस असली जनगणना की ज़रूरत नहीं जो समस्याओं की, साजिशों की, और सड़ चुकी व्यवस्थाओं की हो? लेकिन एक सवाल अब लगातार उठ रहा है — क्या केवल नागरिकों की गिनती से भारत की वास्तविक स्थिति का आकलन हो सकता है? या फिर अब वक्त आ गया है कि हम उन मूल समस्याओं की गिनती करें जो देश को अंदर से खोखला कर रही हैं?
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सिर्फ सिर नहीं, ज़ख्म भी गिनिए
देश में हर साल करोड़ों बच्चे जन्म लेते हैं, लेकिन कितनों के पास असली जन्म प्रमाणपत्र है और कितनों ने इसे जुगाड़ से बनवाया, यह कोई नहीं जानता। मौतें होती हैं — बीमारी, भूख, आत्महत्या, प्रदूषण और न्याय न मिलने की वजह से — लेकिन मौत का सच अक्सर सरकारी रजिस्टर तक पहुंच ही नहीं पाता।
फिर चाहे बात फर्जी SC/ST केस में फंसे लोगों की हो, फर्जी वसीयत और आधार-राशन कार्ड बनवाने वाले गिरोहों की, या जज और पुलिस के भ्रष्टाचार की — इन सबकी कोई जनगणना नहीं होती। अदालतों में तारीख पर तारीख मिलती है, पर इंसाफ नहीं — "जस्टिस विदइन इयर" तो सिर्फ आदर्श बनकर रह गया है।
जनगणना चाहिए या सजगता की गिनती?
देश में 1950 में 1,000 मदरसे थे, और अब यह संख्या 3 लाख पार कर चुकी है। ये कैसे खुले? किसने फंड किया? क्या इनका ट्रैक है किसी के पास? इसी तरह चर्च, मजार, दरगाह, वक्फ संपत्तियों की संख्या किस रफ्तार से बढ़ी — इसका भी कोई जवाब नहीं है।
यह सवाल धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि पारदर्शिता के पक्ष में है। अगर सरकार हर मस्जिद, मंदिर, गुरुद्वारे का रिकॉर्ड रखती है, तो धार्मिक संस्थानों के फंड और फैलाव की भी पारदर्शिता जरूरी है — वरना ये आंकड़े खुद में राजनीति के हथियार बन जाते हैं।
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घुसपैठ की गिनती कौन करेगा?
बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठ भारत के कई राज्यों में डेमोग्राफी बदल रहे हैं — पश्चिम बंगाल, असम, दिल्ली, उत्तराखंड, महाराष्ट्र जैसे राज्य इसके उदाहरण हैं। बॉर्डर की 300 तहसीलों में अब डेमोग्राफिक बदलाव साफ दिखता है, पर इस पर कोई सरकारी "जनगणना" नहीं होती। क्यों?
धर्मांतरण पर भी यही सवाल उठता है — कितने लोग धर्म बदले, कैसे बदले, किसने बदला? जवाब किसी सरकारी फाइल में नहीं है।
अगर गिनना है, तो सच्चाई से गिनिए
- कितने पुलिस वाले रिश्वत लेते हैं?
- कितने अफसर हवाला और दलाली में लिप्त हैं?
- कितने नेता अपने पद का गलत इस्तेमाल करते हैं?
- कितने लोग मानव तस्करी, लव जिहाद, और ड्रग्स की तस्करी में शामिल हैं?
- कितनी मौतें सिर्फ वायु और जल प्रदूषण से होती हैं?
जब तक इन सवालों की ईमानदार जनगणना नहीं होगी, तब तक बाकी सभी गिनती सिर्फ आंकड़ों का खेल रह जाएगी।
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भारत की आत्मा को क्या खोखला कर रहा है?
यह देश राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर, गुरु गोविंद सिंह का देश है। यहाँ भक्ति भी रही है, संघर्ष भी। फिर सवाल उठता है — इतनी समस्याएं भारत में ही क्यों हैं? क्या इसलिए कि हमने समस्याओं की जड़ें पहचाननी बंद कर दीं? क्या इसलिए कि हमने "आदमी" तो गिने, पर उसकी असली स्थिति और पीड़ा को नजरअंदाज कर दिया?
आइये इसे सात भागो में समझते है
भाग 1: गिनती से सच्चाई तक — क्या सिर्फ जनसंख्या गिनना काफी है?
देश में जन्म और मृत्यु के आंकड़े कितने सटीक हैं, यह एक बड़ा सवाल है। लाखों लोग हर साल बिना प्रमाणपत्र के पैदा होते हैं या मर जाते हैं। कितनों की मौतें भूख, प्रदूषण, मेडिकल लापरवाही, और आत्महत्या से होती हैं — इसकी कोई पारदर्शी गिनती नहीं है।
इसके अलावा, फर्जी जन्म प्रमाणपत्र, फर्जी वसीयत, और फर्जी दस्तावेज़ों का धंधा सिस्टम को दीमक की तरह चाट रहा है। जब तक इन सबकी सटीक जनगणना नहीं होगी, तब तक सरकारी योजनाओं की सच्चाई भी अधूरी ही रहेगी।
भाग 2: कहाँ हैं हिंदू? — डेमोग्राफिक बदलाव पर मौन क्यों?
पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उत्तराखंड, कश्मीर जैसे राज्यों की कई तहसीलों में हिंदू अल्पसंख्यक हो चुके हैं। रिपोर्ट्स के अनुसार देश के लगभग 200 जिलों और 1500 तहसीलों में हिन्दू आबादी तेजी से घटी है। इन क्षेत्रों में डेमोग्राफी बदल चुकी है — और ये परिवर्तन केवल प्राकृतिक नहीं हैं।
बॉर्डर इलाकों में हो रही यह साइलेंट डेमोग्राफिक शिफ्ट एक गहरी रणनीति का हिस्सा प्रतीत होती है। इस पर कोई खुली सरकारी चर्चा या डेटा नहीं है। ये चुप्पी ही सबसे बड़ा सवाल बनती जा रही है।
भाग 3: धर्मांतरण और विदेशी फंडिंग — क्या जवाबदेही नहीं होनी चाहिए?
1950 में भारत में 1,000 मदरसे थे, आज यह आंकड़ा 3 लाख पार कर चुका है। चर्चों की संख्या भी कई गुना बढ़ी है। यह जानना जरूरी है कि यह विस्तार कैसे हुआ — कौन लोग इसके पीछे हैं, और फंडिंग कहां से आई?
ब्रिटिश राज में 99 साल की लीज़ पर चर्चों को जो जमीनें दी गई थीं, उनमें से कितनी वापिस की गईं? क्या कोई चर्च खुद से ज़मीन लौटा पाया है? यह सवाल राष्ट्रीय नीति और पारदर्शिता दोनों से जुड़ा है।
भाग 4: घुसपैठ और अंदरूनी मदद — क्या देश अंदर से कमजोर हो रहा है?
बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठियों की संख्या लाखों में है। उनके पास राशन कार्ड, आधार कार्ड, यहां तक कि वोटर आईडी तक मौजूद हैं। यह बिना प्रशासनिक मिलीभगत के कैसे संभव हुआ?
इनकी मदद कौन कर रहा है? किसे राजनीतिक फायदा हो रहा है? इस घुसपैठ की पूरी श्रृंखला का एक गंभीर जनसांख्यिकीय और राष्ट्रीय सुरक्षा प्रभाव है। फिर भी इस पर कोई प्रभावी जनगणना या सटीक रिपोर्ट नहीं आती।
भाग 5: न्याय की कीमत क्या है?
भारतीय न्याय व्यवस्था में वर्षों लग जाते हैं एक मामले को सुलझाने में। "जस्टिस विदइन ईयर" केवल भाषणों तक सीमित रह गया है। जिला और उच्च न्यायालयों में भ्रष्टाचार के आरोप आम हो चुके हैं।
SC/ST एक्ट जैसे कानूनों का दुरुपयोग भी सामने आया है, जहां निर्दोष लोगों को सालों तक जेल भुगतनी पड़ी। इन फर्जी मामलों की कोई आधिकारिक गणना क्यों नहीं होती?
भाग 6: असली भ्रष्टाचार की जनगणना कब होगी?
देश में कितने पुलिसकर्मी, तहसीलदार, पेशकार, दरोगा, कप्तान, और कलेक्टर रिश्वत लेते हैं — कोई आंकड़ा नहीं है। हवाला, टोलाबाज़ी, काला बाज़ारी, मिलावटखोरी, ड्रग तस्करी, मानव तस्करी और लव जिहाद जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं — लेकिन इनकी वास्तविक गिनती कौन करेगा?
फर्जी आधार, फर्जी राशनकार्ड, और अवैध फ्लैट निर्माण जैसे विषय आम होते जा रहे हैं — फिर भी इनके पीछे सक्रिय रैकेटों का कोई पब्लिक डेटा नहीं है।
भाग 7: समाधान संभव है — अगर इच्छाशक्ति हो
भारत में जो समस्याएं हैं — वो न दुबई में हैं, न जापान, चीन या सिंगापुर में। क्यों? क्योंकि वहां कानून के अनुपालन में कोई समझौता नहीं होता। भारत में भी यही इच्छाशक्ति और पारदर्शिता लागू हो तो हालात बदल सकते हैं।
यह देश राम, कृष्ण, बुद्ध, नानक, महावीर और गुरु गोविंद सिंह का देश है। यहाँ भक्ति भी रही है, बलिदान भी। तो सवाल उठता है — आज इतना पतन क्यों है?
असली जनगणना, तभी असली समाधान
भारत को आज सिर्फ जनसंख्या की नहीं, बल्कि विवेक की, भ्रष्टाचार की, घुसपैठ की, और बेईमानी की जनगणना चाहिए। जब तक समस्याओं की गिनती नहीं होगी, समाधान भी अधूरा रहेगा।
हमें चाहिए एक ऐसी जनगणना जो सिर्फ कागज़ नहीं, ज़मीन की सच्चाई बोले। जो नेता और अफसर नहीं, जनता की पीड़ा दर्ज करे। देश को सिर्फ गिनती की नहीं, पहचान की ज़रूरत है। सच्चाई की गिनती ही सुधार की शुरुआत है। जब तक हम गिनेंगे नहीं कि कहाँ सड़न है, तब तक सुधार सिर्फ घोषणाओं में रहेगा।
आज जरूरत है एक ऐसी जनगणना की — जो नागरिकों की नहीं, सिस्टम की, समस्या की और साजिश की हो। तभी भारत वास्तव में बदलेगा।
📌 अगर आप भी मानते हैं कि असली गिनती अब सच्चाई की होनी चाहिए, तो इसे साझा करें। सवाल पूछें — क्योंकि जवाब तभी मिलेगा जब देश जागेगा। , और अपने क्षेत्र में यह सवाल उठाएं।
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