क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी एकतरफा हो गई है? शर्मिष्ठा पनौली केस पर उठते बड़े सवाल
लेखक: वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार | 3 जून 2025
हाल ही में इंस्टाग्राम कंटेंट क्रिएटर शर्मिष्ठा पनौली की गिरफ्तारी और जमानत याचिका खारिज होने के मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक संतुलन, और राजनीतिक चुप्पी जैसे कई अहम सवाल खड़े कर दिए हैं — खासकर हिंदू समुदाय के संदर्भ में।
⚖️ कोर्ट की टिप्पणी — लेकिन दिशा किसकी ओर?
कलकत्ता हाईकोर्ट ने साफ कहा:
"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है, किसी समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुँचाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती।"
यह बात सही है। लेकिन क्या यही बात उन नेताओं और एक्टिविस्ट्स पर भी लागू होती है, जो शिवलिंग, भगवान राम या देवी-देवताओं के अपमान करते हैं?
टीएमसी नेता द्वारा शिवलिंग के अपमान पर कोई गिरफ्तारी नहीं होती, न कोई ज़मानत याचिका खारिज होती है। फिर जब कोई युवा हिंदू लड़की, भले ही विवादित भाषा में बात करे, तो उसे जेल में डाल दिया जाता है और कोर्ट कहता है ‘आसमान नहीं टूटेगा’।
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की आज़ादी की गारंटी देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) इसे "उचित प्रतिबंधों" के साथ सीमित करता है, जैसे सार्वजनिक व्यवस्था और समुदायों के बीच दुश्मनी रोकना। इसके अलावा, अनुच्छेद 25-28 सभी धर्मों को समान धार्मिक स्वतंत्रता देते हैं। भादंस (BNS) की धारा 196 और 299 (जो पहले IPC की धारा 153A और 295A के समकक्ष हैं) धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और समूहों के बीच दुश्मनी बढ़ाने पर कार्रवाई का प्रावधान करते हैं। यह सिर्फ हिंदुओं के लिए है ?।
लेकिन असली सवाल यह है: क्या इन कानूनों का अनुपालन एकसमान है?
जब हिंदू प्रतीकों (जैसे शिवलिंग, भगवान राम) पर अपमानजनक टिप्पणियां होती हैं, तो अक्सर इसे "फ्री स्पीच" की आड़ में छोड़ दिया जाता है। उदाहरण के लिए, टीएमसी नेताओं द्वारा सनातन धर्म को "गंदा धर्म" कहने या शिवलिंग का अपमान करने पर कोई सख्त कार्रवाई नहीं हुई।
वहीं, शर्मिष्ठा जैसे मामलों में, जहां एक हिंदू युवती ने प्रतिक्रिया दी, उसे तुरंत जेल में डाल दिया गया। यह असंतुलन लोगों में "हिंदू-विरोधी मानसिकता" की धारणा को बल देता है।
दोहरे मापदंड का आरोप
क्या यह हिंदुओं को दबाने की रणनीति है?
हिंदू समाज में यह भावना बढ़ रही है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का कानून उनके लिए बंदिश बनता जा रहा है। शर्मिष्ठा केस जैसे मामले इस डर को और बढ़ाते हैं कि क्या हर हिंदू को बोलने से पहले यह सोचना पड़ेगा कि उनके शब्दों से कोई आहत न हो, वरना जेल की सजा भुगतनी पड़ सकती है। हिंदू संगठनों की चुप्पी भी इस मामले में सवाल खड़े करती है—क्या यह एक नई कायरता है?
समस्या कहां आती है?
- कानून का अनुपालन असमान तरीके से होता है — यही वह बिंदु है जो आपके सवाल के केंद्र में है।
- हिंदू प्रतीकों पर जब कोई अपमानजनक टिप्पणी होती है, तो कई बार उस पर “फ्री स्पीच” की आड़ ली जाती है, लेकिन अन्य समुदायों पर ऐसा नहीं दिखता — यह असंतुलन चिंता का विषय है।
2. क्या कोर्ट या कानून प्रणाली में हिंदू-विरोधी मानसिकता है?
उदाहरण:
नूपुर शर्मा के मामले में कोर्ट की सख्त टिप्पणी आई, जबकि उसने कई मामलों में “माफी” और “इंटेंशन” को छूट दी है — यही विरोधाभास लोगों को न्यायिक असंतुलन जैसा लगता है।
🛕 हिंदू प्रतीकों पर बोलना ‘फ्री स्पीच’, बाकी पर बोलना ‘घृणा’?
क्या यह कानूनी और वैचारिक असमानता नहीं?
🏛️ बीजेपी की भूमिका: हिंदू समर्थक या सेकुलर राजनीतिक खेल?
क्या मोदी सरकार “हिंदू” कहकर सिर्फ वोट ले रही है?
यह एक बड़ा सवाल है जो कई जागरूक हिंदू नागरिक पूछ रहे हैं।
- राम मंदिर, CAA, 370 हटाना जैसी चीजें ज़रूर बीजेपी की हिंदू हितैषी छवि बनाती हैं।
- लेकिन जब बात अभिव्यक्ति, मीडिया, कोर्ट या हिंसा के मामलों में हिंदू पक्ष की सुरक्षा की आती है — तब बीजेपी अक्सर चुप या बचाव की मुद्रा में दिखाई देती है।
क्या यह हिंदू समाज को दबाने की सोची-समझी रणनीति है?
यह सिर्फ एक राजनीतिक सवाल नहीं, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अस्तित्व का प्रश्न है।
- क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कानून सिर्फ हिंदुओं के लिए बंदिश बनता जा रहा है?
- क्या हर हिंदू व्यक्ति को बोलने से पहले डरना चाहिए कि “अगर मेरे शब्द किसी को चुभे, तो मैं जेल जाऊँगा”?
- क्या हिन्दू संगठनों की चुप्पी एक नए प्रकार की कायरता नहीं है?
🔚 निष्कर्ष: हिंदू समाज अब जवाबदेही चाहता है, भावनात्मक भाषण नहीं
हिंदू अब वोट बैंक नहीं, बल्कि न्याय और समानता की मांग करता हुआ नागरिक बन चुका है।
🧾 क्या किया जाना चाहिए?
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न्यायपालिका को संतुलन के साथ सभी समुदायों के मामलों में एकसमान दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
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सरकार को निष्क्रिय रहने की बजाय, स्पष्ट स्थिति रखनी चाहिए — फ्री स्पीच सबके लिए एक जैसी हो।
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हिंदू संगठनों को संगठित, संवैधानिक और सक्रिय रूप से आवाज़ उठानी चाहिए।
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सोशल मीडिया और जनजागरण के माध्यम से जनता को सच्चाई और समानता के लिए शिक्षित करना होगा।
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