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    बिहार का दर्द : अपराधियों को कानून का डर क्यों नहीं, नीतीश सरकार पर सवाल

     फटाफट पढ़े 

    खबर का सार : बिहार, जो बुद्ध, गांधी और जेपी की धरती है, आज अपराध के डर में जी रहा है। 2015 से 2024 के बीच अपराध में 80% की बढ़ोतरी हुई है, जबकि राष्ट्रीय औसत केवल 23.7% है। हर महीने औसतन 229 हत्याएं हो रही हैं। 2005 में "जंगलराज" खत्म करने का वादा करने वाले नीतीश कुमार 20 साल से सत्ता में हैं, लेकिन हाल की घटनाएं बताती हैं कि अपराधियों की बहार फिर लौट आई है। सवाल ये है कि क्या बिहार की कानून-व्यवस्था अब भी नेताओं की राजनीतिक मंशाओं में बंधी है?

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    📝We News 24 :डिजिटल डेस्क » प्रकाशित: 09 अगस्त 2025, 10:30 IST

    लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार 


    पटना /नई दिल्ली :-  बिहार, जिसकी मिट्टी से बुद्ध की ज्ञान-ज्योति फूटी और गांधी की अहिंसा की लहर चली, आज अपराध की आग में झुलस रहा है। 2015 से 2022 तक के NCRB आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में हत्याओं की संख्या में उतार-चढ़ाव तो रहा, लेकिन कुल अपराधों में 80% से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है। हर महीने औसतन 229 हत्याएं हो रही हैं, जो राष्ट्रीय औसत से कहीं ऊपर है। 2005 में 'जंगलराज' को खत्म करने का वादा कर सत्ता में आए नीतीश कुमार को 20 साल हो चुके हैं, लेकिन हाल की घटनाएं—जैसे पटना के पारस अस्पताल में गैंगस्टरों द्वारा कैदी चन्दन की हत्या, व्यवसायी गोपाल खेमका और बालू कारोबारी रमाकांत यादव की गोलीबारी—यह सवाल उठाती हैं: क्या बिहार में अपराधियों को पुलिस और कानून का डर खत्म हो गया है?




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    एक गौरवशाली धरती, एक डरावनी हकीकत

    बिहार की धरती ने दुनिया को नालंदा और विक्रमशिला जैसे ज्ञान केंद्र दिए, जहां से शिक्षा की रोशनी फैली। यहां से जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया। लेकिन आज, यही बिहार 'क्राइम कैपिटल' और 'महाजंगलराज' के तमगे से जूझ रहा है। NCRB के आंकड़े चीख-चीखकर बता रहे हैं: 2015 में 3,178 हत्याएं, 2022 में 2,930—कम जरूर हुईं, लेकिन कुल अपराध 1,96,911 से बढ़कर 2,11,079 हो गए। राष्ट्रीय औसत केवल 23.7% की वृद्धि के मुकाबले बिहार में 80.2% की छलांग डराने वाली है।


    जुलाई 2025 में ही, पटना में पारस अस्पताल में हथियारबंद अपराधियों ने सजायाफ्ता चंदन मिश्रा को गोलियों से भून दिया। गोपाल खेमका की हत्या, BJP नेता सुरेंद्र कुमार की शूटिंग, और टेटगामा गांव में जादू-टोना के आरोप में एक परिवार के 5 सदस्यों की नृशंस हत्या—ये घटनाएं बताती हैं कि अपराध अब शहर से गांव तक फैल चुका है। क्या नीतीश कुमार की 'सुशासन' वाली छवि अब धुंधली पड़ गई है?


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    📊 बिहार में हत्याओं के मामले (2015–2022)

    वर्ष                  हत्याएं
    2015                   3,178
    2016                   2,581
    2017                   2,803
    2018                   2,934
    2019                   3,138
    2020                   3,150
    2021                    2,799
    2022                  2,930



    रुझान:

    2016 में हत्या के मामलों में गिरावट दिखी, लेकिन 2019–2020 में यह फिर बढ़ा और 2022 में लगभग स्थिर रहा। इसका मतलब है कि गिरावट के बाद भी राज्य में हत्याओं का स्तर लगातार ऊँचा है।


    📈 बिहार का कुल अपराध ग्राफ (2018–2022)

    वर्ष                          दर्ज अपराध
    2018                          1,96,911
    2019                          1,97,935
    2020                          1,94,698
    2021                          1,86,006
    2022                          2,11,079

    रुझान:

    2021 में थोड़ी गिरावट के बाद 2022 में अपराध के मामले अचानक उछले, जो 2.11 लाख के पार पहुंच गए। यह बताता है कि कानून-व्यवस्था में स्थिरता नहीं आ रही है और अपराधियों का हौसला बढ़ा हुआ है।


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    आंकड़ों से परे सच — क्या सिर्फ क्राइम नंबर पूरी कहानी बताते हैं?

    किसी भी समाज में अपराध की मौजूदगी की मुकम्मल तस्वीर सिर्फ आंकड़े नहीं बयां कर सकते। अगर FIR ही दर्ज नहीं होगी तो आंकड़ों में घटना कहां से आएगी?
    बिहार में एक दौर ऐसा भी था जब एफआईआर दर्ज होना ही बड़ी बात मानी जाती थी। पीड़ित या गवाह, दोनों ही थाने जाने से डरते थे — या तो पुलिस का रवैया कठोर था या फिर अपराधी के राजनीतिक संरक्षण का डर।

    आज तस्वीर बदली है। पुलिस तक अपराध की शिकायत पहुंचाने के कई रास्ते हैं —

    • ऑनलाइन और हेल्पलाइन के जरिए शिकायत
    • मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए घटनाओं का खुलासा
    • चौकसी बढ़ाने वाली लोकल पुलिस टीम

      अब पुलिस पर कार्रवाई करने का दबाव और जिम्मेदारी दोनों बढ़ गए हैं। ऐसे में Number of Crime का बढ़ना कई बार अपराध में वास्तविक वृद्धि के साथ-साथ रिपोर्टिंग में सुधार का भी संकेत देता है।



      डेटा क्या कहता है?

      • 2005: 1,04,778 Cognizable Crimes
      • 2020: 2,57,306 Cognizable Crimes
      • 2025 (मई तक): 95,942 Cognizable Crimes


      जंगलराज का दौर — 1990 से 2005

      1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने। उनका सत्ता चलाने का अंदाज़ अलग था, लेकिन इसी दौरान बाहुबलियों ने अपराध को संगठित कारोबार का रूप देना शुरू कर दिया।

      • अपहरण उद्योग और रंगदारी टैक्स की चर्चा देशभर में होने लगी।
      • चारा घोटाले में जेल जाने से पहले लालू यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया।
      • राबड़ी देवी के साथ उनके दोनों भाई साधु यादव और सुभाष यादव का राजनीतिक और प्रशासनिक प्रभाव था।

        सफेद कुर्ता-पायजामा पहनकर हथियारों के साथ हवाखोरी करने वाले गुर्गों की संख्या बढ़ी। अखबार हत्या, अपहरण और रंगदारी की खबरों से भरे रहते थे। लोग खुद अपनी सुरक्षा के इंतजाम करने लगे।

        • हथियार रखना इज्जत और शान की बात बन गई।
        • जातिवाद को राजनीतिक हथियार बनाने का नतीजा जातीय संघर्ष के रूप में सामने आया, जिसमें खून-खराबा आम हो गया।


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          इस दौर की काली घटनाएं

          • दिसंबर 1994 — गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी. कृष्णैया की पीट-पीटकर हत्या।
          • मार्च 1997 — छात्र नेता चंद्रशेखर की सिवान में सरे-आम हत्या।
          • लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार — जहानाबाद में 58 लोगों को गोलियों से भून दिया गया।
          • बथानी टोला नरसंहार — भोजपुर में 21 दलितों की हत्या।


            परिणाम

            • पुलिस पर जनता का भरोसा टूट गया।
            • जाति, जमीन और मजदूरी के सवाल पर हिंसक संघर्ष बढ़ा।
            • ब्रह्मर्षि सेना, कुंवर सेना, सनलाइट सेना और रणवीर सेना जैसे संगठनों का विस्तार हुआ।
            • हत्या, अपहरण, डकैती और नरसंहार रोजमर्रा की चर्चाओं का हिस्सा बन गए।
            • हजारों लोगों ने अपनी सुरक्षा और भविष्य की तलाश में बिहार छोड़ दिया।


            जंगलराज का अंत — नीतीश कुमार और अभयानंद का प्लान

            2005 में मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी — बिहार से जंगलराज का खात्मा
            उन्होंने एडीजी मुख्यालय की जिम्मेदारी सौंपी IPS अभयानंद को, जो बाद में बिहार के डीजीपी भी बने। अभयानंद के दिमाग में एक बात साफ थी —

            "इकबाल कभी भी पुलिस का नहीं, कानून का होना चाहिए।"
            क्योंकि, अगर पुलिस का रुतबा कानून से ऊपर चला जाए, तो वर्दी और गुंडागर्दी में कोई फर्क नहीं रह जाता।

            ऑपरेशन: गिरफ्तारी से सजा तक

            • अपराधियों की गिरफ्तारी में तेजी
            • पुलिस को ट्रायल कराने की ट्रेनिंग
            • केस की पैरवी में प्रोफेशनल अप्रोच
            • अदालत में सबूत पेश करने की क्षमता में सुधार

              इन कदमों से सिर्फ गिरफ्तारी ही नहीं, बल्कि सजा की दर भी बढ़ी, जिससे अपराधियों में कानून का डर पैदा हुआ।

              नीतीश कुमार ने 2005 में सत्ता संभाली और पुलिस सुधारों से 'सुशासन बाबू' बने। IPS अभयानंद जैसे अधिकारियों ने गिरफ्तारी से सजा तक की प्रक्रिया तेज की। हाईटेक हथियार, ट्रेनिंग, और इंफ्रास्ट्रक्चर से अपराध नियंत्रित हुए। अपहरण और नक्सली हिंसा पर लगाम लगी। लेकिन आज, DGP विनय कुमार का तर्क कि क्राइम 'प्रॉपर्टी विवाद' या 'इंटरकास्ट मैरिज' से जुड़े हैं, और शराबबंदी से आंकड़े बढ़े हैं, कमजोर लगता है। साइबर क्राइम के लिए थाने बने, लेकिन पुलिस में आधे पद खाली हैं—पेट्रोलिंग और जांच प्रभावित हो रही है।


              क्यों बढ़ रहा क्राइम ग्राफ?

              बिहार में निवेश की कमी, बेरोजगारी, और खराब कानून-व्यवस्था कारोबारियों को दूर रखती है। अपराधी राजनीति से जुड़े हैं—जेल से बेल पर निकले बाहुबली JDU से चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं। क्या राजनीतिक दबाव पुलिस को बंधक बना रहा है? चुनाव नजदीक हैं, विपक्ष मुद्दा उठा रहा है, लेकिन सवाल जनता का है: जब जान-माल सुरक्षित नहीं, तो विकास कैसे?


              लोकप्रिय संस्कृति में बिहार का अपराध

              बिहार में ना कल-कारखानों की भरमार है, ना नौकरियों की। अच्छे निजी कॉलेज और यूनिवर्सिटी की कमी है, और उच्चस्तरीय निजी अस्पताल भी गिने-चुने हैं।
              इसकी एक बड़ी वजह मानी जाती है — लंबे समय तक खराब कानून-व्यवस्था और ऊँचा क्राइम ग्राफ।

              बीते दशकों में बाहुबलियों की अघोषित हुकूमत, अपहरण-फिरौती-हत्या-डकैती जैसी घटनाएं सामान्य बन गई थीं।
              राजनीति और अपराधियों के बीच के गठजोड़ की कहानियां भी खूब सुर्खियों में रहीं।

              यही तस्वीर बॉलीवुड ने भी बार-बार पर्दे पर उतारी —

              • शूल (1999) — एक ईमानदार पुलिस अफसर और बाहुबलियों के बीच जंग।
              • अपहरण (2005) — बिहार के अपहरण उद्योग की पृष्ठभूमि।
              • मृत्युदंड (1997) — अपराध, राजनीति और जातीय संघर्ष की कहानी।
              • गंगाजल (2003) — पुलिस के संघर्ष और सिस्टम की सच्चाई।

                इन फिल्मों ने न केवल बिहार के उस दौर की क्रूर सच्चाई को दिखाया, बल्कि देशभर में बिहार की एक खास छवि भी बनाई — जहां अपराध और राजनीति गहराई से जुड़े हुए थे।



                रास्ता क्या है?

                नीतीश सरकार को पुलिस में भर्तियां तेज करनी होंगी, साइबर क्राइम पर फोकस बढ़ाना होगा, और अपराधियों से राजनीतिक दूरी बनानी होगी। जनता को जागरूक रहना होगा—FIR दर्ज कराएं, सोशल मीडिया से आवाज उठाएं। बिहार की मिट्टी में अभी भी सुधार की संभावना है, लेकिन इसके लिए ईमानदार इच्छाशक्ति चाहिए।


                हमारी राय: बिहार का दर्द गहरा है—नीतीश कुमार ने सुशासन की शुरुआत की, लेकिन अब अपराध की लहर से छवि धुंधली हो रही है। राजनीतिक संरक्षण और पुलिस की कमी अपराधियों को बेखौफ बना रही है। सरकार को तुरंत पुलिस सुधार, भर्तियां, और अपराधियों से दूरी बनाने की जरूरत है। अन्यथा, बिहार का विकास सपना रहेगा। विपक्ष को भी रचनात्मक भूमिका निभानी चाहिए, न कि सिर्फ चुनावी मुद्दा बनाना। बिहारवासी सुरक्षित जीवन के हकदार हैं—समय है बदलाव का।

                💬 आपको क्या लगता है — क्या भारत में न्याय के मापदंड बदल रहे हैं? अपनी राय कमेंट्स में ज़रूर बताइए!

                लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार हैं और लोकतंत्र की रक्षा में सक्रिय जन-लेखन से जुड़े हुए हैं।



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