📰"1947 का भारत बंटवारा : हिंदू-सिखों के साथ षड्यंत्र, बंटवारे के बाद 25% मुसलमान ही गए पाकिस्तान , जाने अदला-बदली की सच्चाई"
1947 में जनसंख्या का आंकड़ा: मुसलमानों का पलायन अधूरा क्यों रहा?
1941 की जनगणना के अनुसार, अविभाजित भारत (जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल थे) की कुल जनसंख्या लगभग 36 करोड़ थी। इसमें मुसलमानों की आबादी करीब 4.24 करोड़ थी, यानी कुल जनसंख्या का 24.3%। बंटवारे के बाद, 1951 की जनगणना के अनुसार, केवल 72.26 लाख मुसलमान भारत छोड़कर पाकिस्तान गए। यह संख्या क्षेत्रीय आधार पर इस प्रकार थी:
- पंजाब प्रांत से: 55 लाख मुसलमान
- पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा से: 7 लाख मुसलमान
- उत्तर प्रदेश और दिल्ली से: 4.65 लाख मुसलमान
वहीं, भारत में मुसलमानों की आबादी 1951 में 3.5 करोड़ थी, जो 2011 तक बढ़कर 17.2 करोड़ हो गई। 2025 में यह अनुमानित रूप से 25 करोड़ से अधिक हो सकती है, अगर हम 1951-2011 के बीच 4.9% की औसत वार्षिक वृद्धि दर को आधार मानें। यह वृद्धि भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति का परिणाम है, लेकिन यह सवाल उठता है कि जब बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ, तो मुसलमान भारत में क्यों बने रहे? मुसलमानों की पूरी आबादी पाकिस्तान क्यों नहीं गई?
हिंदुओं के साथ अन्याय का दावा: क्या कहते हैं तथ्य?
बंटवारे के दौरान पंजाब और बंगाल जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हिंसा और विस्थापन हुआ। हिंदुओं और सिखों को पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से बड़े पैमाने पर विस्थापित होना पड़ा। इस दौरान:
- पश्चिमी पंजाब से लगभग 50 लाख हिंदू और सिख भारत आए।
- पूर्वी पाकिस्तान से करीब 22.49 लाख हिंदू और सिख भारत आए।
इसके विपरीत, भारत में रहने वाले मुसलमानों पर पलायन का उतना दबाव नहीं था। इसका एक कारण भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति थी। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने जोर दिया कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा, जहाँ मुसलमानों को बराबरी का हक होगा। गांधीजी ने तो यहाँ तक कहा कि अगर मुसलमान भारत में रहना चाहते हैं, तो उन्हें पूरा अधिकार है। इसके परिणामस्वरूप, भारत में रहने वाले अधिकांश मुसलमानों ने देश नहीं छोड़ा।
लेकिन यह नीति उस समय की राजनीति से भी प्रभावित थी। कुछ आलोचकों का मानना है कि कांग्रेस ने वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखते हुए मुसलमानों को भारत में रहने के लिए प्रोत्साहित किया। यह सवाल आज भी प्रासंगिक है कि क्या यह नीति हिंदुओं और सिखों के हितों की अनदेखी थी?
लेकिन पाकिस्तान में स्थिति अलग थी। वहाँ हिंदुओं और सिखों को बड़े पैमाने पर हिंसा, जबरन धर्मांतरण और विस्थापन का सामना करना पड़ा। 1951 में पाकिस्तान की जनगणना के अनुसार, पश्चिमी पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों की आबादी घटकर 1.3% रह गई, जबकि पूर्वी पाकिस्तान में यह 22% थी। बाद के दशकों में यह आबादी और कम होती गई, और 2017 तक पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी केवल 2.14% (लगभग 45 लाख) रह गई।
पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति
पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति आज भी चिंताजनक है।
- पाकिस्तान: 1947 में हिंदुओं और सिखों की आबादी 14% थी, जो 2025 तक घटकर 2% (लगभग 50 लाख) रह गई। जबरन धर्मांतरण, अपहरण और हिंसा की घटनाएँ आम हैं।
- बांग्लादेश: 1947 में हिंदुओं की आबादी 22% थी, जो 2023 तक घटकर 8% (लगभग 1.5 करोड़) रह गई। यहाँ भी हिंदुओं पर हमले और संपत्ति हड़पने की घटनाएँ सामने आती हैं।
इसके विपरीत, भारत में मुसलमानों की आबादी लगातार बढ़ी है। यहाँ तक कि भारत ने मुसलमानों को संवैधानिक अधिकार और सुरक्षा दी, जिसके कारण उनकी आबादी में स्थिर वृद्धि हुई। लेकिन यह असंतुलन हिंदुओं और सिखों के लिए एक बड़ा सवाल खड़ा करता है—क्या बंटवारे का बोझ केवल एक समुदाय ने उठाया?
क्या यह हिंदुओं के साथ अन्याय था?
हिंदुओं और सिखों के साथ अन्याय का दावा इस तथ्य से उपजता है कि बंटवारे का आधार धर्म था, लेकिन जनसंख्या की अदला-बदली पूरी तरह नहीं हुई। हिंदुओं और सिखों को पाकिस्तान से लगभग पूरी तरह विस्थापित होना पड़ा, जबकि भारत में 3.5 करोड़ मुसलमान बने रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि:
- हिंदुओं का नुकसान: पंजाब और बंगाल में हिंदुओं और सिखों ने अपनी जमीन, संपत्ति और जीवन गंवाए। लाखों लोग शरणार्थी बन गए।
- सांस्कृतिक विस्थापन: हिंदू और सिख समुदायों की सांस्कृतिक जड़ें, जो सदियों से उन क्षेत्रों में थीं, उखड़ गईं।
- पाकिस्तान में अल्पसंख्यक उत्पीड़न: पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों के साथ भेदभाव और हिंसा की घटनाएँ आज तक जारी हैं।
वहीं, भारत में रहने वाले मुसलमानों को संवैधानिक अधिकार और सुरक्षा मिली। यहाँ तक कि 1951 से 2011 तक भारत में मुसलमानों की आबादी 3.5 करोड़ से बढ़कर 17.2 करोड़ हो गई, जो भारत की धर्मनिरपेक्ष नीति का प्रमाण है। लेकिन इस नीति ने उन हिंदुओं और सिखों के बीच असंतोष को जन्म दिया, जिन्हें लगा कि बंटवारे का बोझ उन्होंने अकेले उठाया।
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क्या कहते हैं आलोचक?
कई इतिहासकारों और आलोचकों का मानना है कि बंटवारे की प्रक्रिया में ब्रिटिश सरकार की "फूट डालो और राज करो" नीति ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव को बढ़ाया। माउंटबेटन योजना और रैडक्लिफ रेखा ने सीमाओं को इस तरह खींचा कि पंजाब और बंगाल जैसे क्षेत्रों में हिंसा अनिवार्य हो गई। इसके अलावा:
- मुस्लिम लीग की भूमिका: मुस्लिम लीग ने "डायरेक्ट एक्शन डे" जैसे कदमों से हिंसा को भड़काया, जिसके परिणामस्वरूप 1946 में कलकत्ता और नोआखली जैसे क्षेत्रों में दंगे हुए।
- कांग्रेस की नीति: कांग्रेस के कुछ नेताओं ने मुसलमानों को भारत में रहने के लिए प्रोत्साहित किया, जिसे कुछ लोग हिंदुओं के हितों की अनदेखी मानते हैं।
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निष्कर्ष: अनुत्तरित सवाल और भविष्य की सीख
1947 का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ, लेकिन यह प्रक्रिया असंतुलित और अधूरी रही। हिंदुओं और सिखों को पाकिस्तान और बांग्लादेश से विस्थापित होना पड़ा, जबकि भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़ती गई। क्या यह एक साजिश थी? क्या उस समय की राजनीति ने जानबूझकर इस असंतुलन को बनाए रखा? ये सवाल आज भी अनुत्तरित हैं।
पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यक खत्म होने के कगार पर हैं, जबकि भारत में मुसलमानों की आबादी 25 करोड़ से अधिक हो सकती है। यह असमानता 78 साल बाद भी बहस का विषय है। बंटवारे के घाव अभी भरे नहीं हैं, और यह दोनों देशों के लिए एक सबक है कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना कितना जरूरी है।
आपके विचार क्या हैं? क्या बंटवारा हिंदुओं और सिखों के साथ अन्याय की साजिश था? भारत में मुसलमानों को रहने देने का निर्णय सही था या गलत? नीचे कमेंट करें और चर्चा में शामिल हों!
लेखक दीपक कुमार
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