"महाराजा हरि सिंह पर टिप्पणी कर बुरे फंसे खान सर, ऐसा क्या बोल गए कि मच गया बवाल; लोगों में उबाल"
रिपोर्ट: We News 24 डेस्क | दिनांक: 15 जुलाई 2025
जम्मू-कश्मीर के पूर्व महाराजा हरि सिंह पर यूट्यूबर व शिक्षक खान सर की टिप्पणी ने डोगरा समाज और राष्ट्रवादी संगठनों को आक्रोशित कर दिया है। सोशल मीडिया पर पहले से ही वायरल हो चुके बयान को लेकर राष्ट्रीय बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया और खान सर के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग की।
📍 क्या बोले खान सर?
एक इंटरव्यू के दौरान खान सर ने कहा:
"कश्मीर समस्या की जड़ महाराजा हरि सिंह की गलती थी। वो कश्मीर को स्विट्जरलैंड बनाना चाहते थे। जब उनके घर के रिश्तेदारों को पाकिस्तान लेकर गया, तब जाकर उन्होंने आत्मसमर्पण किया। उन्होंने 15 अगस्त 1947 को देश की आज़ादी के दो महीने बाद 26 अक्टूबर को भारत में विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए।"
खान सर ने महाराजा को 'स्वार्थी' तक कह दिया, जिसे लेकर विवाद गहराता जा रहा है।
🔥 राष्ट्रीय बजरंग दल और डोगरा समाज का गुस्सा
राष्ट्रीय बजरंग दल के प्रदेश अध्यक्ष राकेश बजरंगी ने बयान जारी करते हुए कहा:
"खान सर ने महाराजा हरि सिंह जैसे राष्ट्रवादी और दूरदर्शी शासक का अपमान किया है। डुग्गर समाज इससे आहत है। प्रशासन को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए और खान सर के विरुद्ध FIR दर्ज कर जेल भेजा जाना चाहिए।"
डोगरा शाही परिवार की सदस्य कुंवारी रितु सिंह ने भी खान सर की बातों को ‘बेहद दुर्भाग्यपूर्ण’ बताया।
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📚 इतिहास बनाम व्यक्तिगत व्याख्या – बहस का मुद्दा क्या है?
इस विवाद ने एक बार फिर इस बात पर चर्चा छेड़ दी है कि इतिहास की व्याख्या किस हद तक व्यक्तिगत राय पर आधारित हो सकती है और कहां वो समुदाय विशेष की अस्मिता से टकराती है।
क्या किसी शिक्षक को इतिहास को सवालों के दायरे में रखने का अधिकार है?
क्या वाकई महाराजा हरि सिंह ने विलय में देरी कर स्वार्थ दिखाया?
या फिर यह एक राष्ट्रवादी राजा की दूरदृष्टि थी, जिसे राजनीतिक मजबूरियों के चलते गलत ढंग से देखा गया?
इन सवालों के जवाब इतिहास के पन्नों में होंगे, लेकिन भावनाओं की प्रतिक्रिया आज के समाज में सामने आ रही है।
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⚖️ We News 24 की संपादकीय टिप्पणी:
महाराजा हरि सिंह का नाम भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनकी नीतियों और निर्णयों पर राय भिन्न हो सकती है, लेकिन बहस का स्तर व्यक्तिगत आरोप और भावनात्मक चोट से ऊपर उठना चाहिए।
विचारों की स्वतंत्रता और ऐतिहासिक संवेदनशीलता – दोनों का संतुलन आवश्यक है।
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