रुपये की गिरावट को मोदी सरकार की नाकामी माना जाए? दोनों पक्षों का विश्लेषण
We News 24 : डिजिटल डेस्क » संवाददाता काजल कुमारी
नई दिल्ली, 4 दिसंबर 2025 :- भाई, ये सवाल आजकल हर चाय की दुकान से लेकर सोशल मीडिया तक छाया हुआ है। 3 दिसंबर को रुपये ने पहली बार डॉलर के मुकाबले 90 का आंकड़ा पार किया, और आज 4 दिसंबर को ये 90.36 तक पहुंच गया। अब सवाल ये कि क्या ये मोदी सरकार की नाकामी है? या ये ग्लोबल फैक्टर्स का खेल? चलिए, बिना किसी पार्टी की साइड लिए, फैक्ट्स के आधार पर देखते हैं। मैंने एक्सपर्ट ओपिनियंस, इकोनॉमिक डेटा और पॉलिसीज को खंगाला है, ताकि सच्चाई सामने आए।
रुपये गिरने के मुख्य कारण: ग्लोबल या घरेलू?
पहले समझिए कि रुपये क्यों गिरा। ये कोई अचानक की बात नहीं, बल्कि कई वजहों का मेल है:
स्ट्रॉन्ग अमेरिकी डॉलर: अमेरिका में ब्याज दरें ऊंची हैं, और डॉलर मजबूत हो रहा है। 2025 में US टैरिफ्स (खासकर भारत के एक्सपोर्ट्स पर 50% तक) ने रुपये पर दबाव बढ़ाया। इससे फॉरेन इन्वेस्टर्स (FII) भारत से पैसा निकाल रहे हैं – अकेले 2025 में इक्विटी से करोड़ों डॉलर बाहर गए।
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कमॉडिटी प्राइस और जियोपॉलिटिकल टेंशन्स: कच्चे तेल, रसायन, उर्वरक जैसी चीजों की कीमतें ऊंची हैं। रूस-यूक्रेन वॉर और मिडिल ईस्ट टेंशन्स ने इंपोर्ट बिल बढ़ाया। भारत का ट्रेड डेफिसिट (इंपोर्ट ज्यादा, एक्सपोर्ट कम) 2024-25 में रेकॉर्ड हाई पर है।
घरेलू फैक्टर्स: इकोनॉमिक स्लोडाउन के संकेत, जैसे कम इंडस्ट्रियल ग्रोथ और हाई इन्फ्लेशन। लेकिन ये ग्लोबल ट्रेंड्स से ज्यादा जुड़े हैं।
ये कारण ज्यादातर ग्लोबल हैं, जैसे 2024 के US इलेक्शन रिजल्ट्स ने भी असर डाला। मोदी सरकार के चीफ इकोनॉमिक एडवाइजर नागेश्वरन कहते हैं कि वो इस पर "नींद नहीं गंवा रहे", क्योंकि ये पॉलिसी चॉइस है – फ्लेक्सिबल रुपये से इकोनॉमी बैलेंस रहती है।
क्या सरकार की नाकामी है? विपक्ष का आरोप
विपक्ष, खासकर कांग्रेस, इसे सरकार की "पॉलिसी फेलियर" बता रहा है। जयराम रमेश जैसे नेता कहते हैं कि मोदी सरकार ने इकोनॉमिक पॉलिसीज में चूक की – एक्सपोर्ट बूस्ट नहीं हुआ, मैन्युफैक्चरिंग कमजोर रही, और फॉरेन इन्वेस्टमेंट घटा। 2014 में मोदी आए तो रुपया 58 पर था, अब 90 पर – ये आंकड़ा अक्सर उठाया जाता है। कुछ एनालिस्ट कहते हैं कि सरकार ने रुपये को आर्टिफिशियली मजबूत रखने की कोशिश नहीं की, जो एक्सपोर्टर्स को नुकसान पहुंचाता है।
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रेडिट और सोशल मीडिया पर भी लोग कह रहे हैं कि "रुपये का गिरना सरकार की फेलियर है", क्योंकि डोमेस्टिक रिफॉर्म्स (जैसे मेक इन इंडिया) ने एक्सपोर्ट नहीं बढ़ाया। 2018 से ही कांग्रेस इसे "फेल्ड पॉलिसीज" कहती आ रही है।
लेकिन क्या पूरी तरह नाकामी है? सरकार का पक्ष
नहीं, पूरी तरह नहीं। कई एक्सपर्ट्स कहते हैं कि रुपये का गिरना "नेचुरल" है और ये कोई "क्राइसिस" नहीं। मोदी सरकार ने RBI को इंडिपेंडेंट रखा, जो रुपये को मैनेज करता है – 2025 में RBI ने डॉलर बेचकर गिरावट रोकी। कमजोर रुपये से एक्सपोर्टर्स को फायदा होता है (जैसे IT, फार्मा, टेक्सटाइल्स सस्ते हो जाते हैं)। भारत की GDP ग्रोथ अभी भी 6-7% पर है, जो दुनिया में हाई है।
नीति आयोग जैसे बॉडीज कहते हैं कि हाई रुपये वैल्यू ने पहले क्राइसिस पैदा की थी, अब फ्लेक्सिबल रखना बेहतर है। और याद रखो, पिछले 10 साल में भारत की इकोनॉमी 3 ट्रिलियन से 5 ट्रिलियन डॉलर हो गई, जो सरकार की सक्सेस दिखाती है। गिरावट ग्लोबल है – यूरो, येन, पाउंड सब गिरे हैं।
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निष्कर्ष: नाकामी से ज्यादा बैलेंस्ड व्यू लो
भाई, इसे "नाकामी" कहना आसान है, लेकिन हकीकत मिक्स्ड है। ग्लोबल प्रेशर्स (US पॉलिसीज, वॉर) ज्यादा जिम्मेदार हैं, लेकिन सरकार पर भी सवाल हैं कि एक्सपोर्ट डाइवर्सिफिकेशन क्यों नहीं हुआ। अगर आप ओपोजिशन वाले हो तो हां लगेगा, अगर सपोर्टर तो नहीं। लेकिन ट्रूथ ये कि इकोनॉमी कॉम्प्लेक्स है – एक फैक्टर से जज मत करो। RBI की रिपोर्ट्स चेक करो, या एक्सपर्ट्स से बात करो।
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