Header Ads

ad728
  • Latest Stories

    याद रखें आपातकाल का वो 50 साल – 25 जून 1975 के दिन भारत के लोकतंत्र पर मंडराए थे काले साए

     


    .com/img/a/



    लेखक: दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

    "इतिहास को भुला देने वाले समाज को इतिहास फिर चेतावनी के रूप में दोहराता है।" भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में 25 जून 1975 की तारीख एक काले अध्याय के रूप में अंकित है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया। लोकतंत्र को कुचलने, संविधान को दबाने, नागरिकों के मौलिक अधिकारों को रौंदने और पूरी शासन व्यवस्था को एक परिवार की मुट्ठी में कैद करने का जो दुस्साहस उस रात हुआ, वह किसी तानाशाही राज्य की ही मिसाल था। आपातकाल की अवधि  25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 



    ये भी पढ़े-📰"1947 का भारत बंटवारा : हिंदू-सिखों के साथ षड्यंत्र, बंटवारे के बाद 25% मुसलमान ही गए पाकिस्तान , जाने अदला-बदली की सच्चाई"


    आपातकाल के दौरान 42वां संविधान संशोधन लाया गया, जिसमें संविधान की आत्मा को ही बदलने का प्रयास किया गया। इसका उद्देश्य साफ़ था – भारत को बहुदलीय लोकतंत्र से हटाकर एकदलीय अधिनायकवादी प्रणाली की ओर ले जाना। इस संशोधन ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमितनागरिक अधिकारों को नियंत्रित, और सरकारी सत्ता को निरंकुश बना दिया। यह संविधान पर सत्ता की सीधी चोट थी।

     25-26 जून 1975 की रात को इंदिरा गांधी सरकार के प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना। इसमें कहा गया- भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है।

    इंदिरा गांधी की सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर भी अकल्पनीय हमला बोला। संपादकीय सामग्री को सेंसर किया गया, पत्रकारों को जेल भेजा गया, और अखबारों को धमकियों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि कई अखबारों ने विरोध स्वरूप अपने संपादकीय कॉलम को खाली छोड़ दिया। देश की प्रेस, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उसे घुटनों पर लाने की कोशिश की गई।


    ये भी पढ़े-सम्पादकीय: क्या भारत में हिंदुओं के विरुद्ध चल रही है सुनियोजित साजिश?


    इसी कालखंड में न्यायपालिका पर भी दबाव डाला गया। वरिष्ठता को नजरअंदाज करते हुए जूनियर जज को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि वरिष्ठ जजों ने नागरिक अधिकारों की रक्षा में निर्भीकता दिखाई थी। जस्टिस एच.आर. खन्ना, जिन्होंने ‘ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला’ केस में सरकार के खिलाफ एकमात्र असहमति जताई थी, उन्हें दरकिनार कर दिया गया। यह दर्शाता है कि यदि इंदिरा गांधी 1977 में फिर से सत्ता में आतीं, तो देश की संवैधानिक संस्थाओं का और अधिक दमन होता।


    आपातकाल में राजनीतिक विरोधियों को जेलों में ठूंसा गया, प्रेस की आवाज दबाई गई, और नौकरशाही को ‘कमिटेड ब्यूरोक्रेसी’ में तब्दील करने का अभियान चलाया गया – यानी योग्यता और निष्पक्षता के स्थान पर केवल सत्ता के प्रति वफादारी ही मापदंड बनी। यदि कांग्रेस उस दौर में सत्ता में बनी रहती, तो संघ लोक सेवा आयोग, चुनाव आयोग, कैग जैसे संस्थानों की स्वतंत्रता समाप्त कर दी जाती। भारत एक ऐसे मार्ग पर बढ़ जाता, जहाँ लोकतंत्र केवल नाममात्र रह जाता।


    आपातकाल में जो प्रयोग हुआ, वह ‘एक परिवार, एक पार्टी, एक विचार’ को थोपने का था। यदि यह प्रयोग सफल होता, तो भारत के निर्णय केंद्र लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि व्यक्तिगत इच्छाओं से संचालित होते। उस समय कांग्रेस का मुखपत्र ‘नेशनल हेराल्ड’ तक एकदलीय लोकतंत्र की वकालत करने लगा था। यह वह समय था जब लोकतंत्र के जनक कहे जाने वाले नेता भी मौन करा दिए गए थे


    ये भी पढ़े-क्या भारतीय न्यायपालिका के निर्णयों में धार्मिक पक्षपात का भाव है?


    लेकिन इस आपातकाल के खिलाफ एक आवाज गूंज उठी – जनता की आवाज। 1977 का आम चुनाव एक निर्णायक जनमत था, जिसमें इंदिरा गांधी और उनके आपातकाल समर्थक बड़े नेताओं को जनता ने अपने वोट की ताकत से पराजित किया। यह चुनाव किसी राजनीतिक दल की हार या जीत नहीं, बल्कि लोकतंत्र बनाम तानाशाही की लड़ाई था – और जीत लोकतंत्र की हुई।


    जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय ने न सिर्फ इंदिरा गांधी की सत्ता को उखाड़ फेंका, बल्कि यह भी साबित किया कि भारत की जनता अपने संवैधानिक अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए किसी भी हद तक जा सकती है


    आज जब आपातकाल के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, यह हम सबका दायित्व बनता है कि हम उस अंधेरे दौर को याद रखें – न सिर्फ इतिहास के एक तथ्य के रूप में, बल्कि लोकतंत्र की कीमत समझने के रूप में


    आपातकाल की याद हमें यह सिखाती है कि लोकतंत्र कभी भी स्वाभाविक रूप से सुरक्षित नहीं होता। उसे हर पीढ़ी को अपने साहस, सजगता और सक्रिय भागीदारी से बचाए रखना होता है।


    इसलिए जरूरी है कि हम सिर्फ स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर लोकतंत्र की बात न करें, बल्कि हर दिन इसकी रक्षा के लिए सजग रहें – क्योंकि एक दिन की चुप्पी तानाशाही को न्योता बन सकती है।


    (लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख लोकतंत्र की रक्षा के प्रति उनकी निजी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।) 

    📢 We News 24 / वी न्यूज 24 

    📲 वी न्यूज 24 को फॉलो करें और हर खबर से रहें अपडेट!

    👉 ताज़ा खबरें, ग्राउंड रिपोर्टिंग, और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए जुड़ें हमारे साथ।

    .com/img/a/.com/img/a/.com/img/a/.com/img/a/.com/img/a/

    कोई टिप्पणी नहीं

    कोमेंट करनेके लिए धन्यवाद

    Post Top Ad

    ad728

    Post Bottom Ad

    ad728