बिहार मतदाता सूची संशोधन: 65 लाख नाम कटने से लोकतंत्र पर सवाल, क्या SIR सुधार है या साजिश?
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खबर का सार : बिहार में SIR के तहत 65.2 लाख मतदाताओं के नाम हटने से विवाद गहराया है, जिसमें मृतक, पलायनकर्ता और डुप्लिकेट नाम शामिल हैं। यह 2024 लोकसभा चुनाव की वैधता पर सवाल उठाता है। सार्वजनिक राय विभाजित है: सोशल मीडिया पर कुछ लोग इसे फर्जी वोटों की सफाई मानते हैं, जैसे "35 लाख फेक वोट हटे, अच्छा कदम" (X पोस्ट से), जबकि विपक्षी समर्थक इसे "लोकतंत्र पर हमला" और "वोट चोरी" कह रहे हैं, दावा करते हुए कि वैध नाम हटाए जा रहे हैं। कई यूजर्स ग्रामीण लोगों की परेशानी पर सहानुभूति जता रहे हैं, कहते हुए "पढ़े-लिखे नहीं, लेकिन वोट का हक तो है।" कुल मिलाकर, 60% पोस्ट सफाई को सकारात्मक देखते हैं, लेकिन 40% साजिश का आरोप लगाते हैं, मांग करते हुए कि आयोग पारदर्शी बने।
📝We News 24 :डिजिटल डेस्क » प्रकाशित: 11 अगस्त 2025, 16:15 IST
लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
नई दिल्ली,:- बिहार में चुनाव आयोग की विशेष गहन संशोधन (SIR) प्रक्रिया ने एक बार फिर लोकतंत्र की नींव पर सवाल खड़े कर दिए हैं। चुनाव आयोग ने हाल ही में जारी ड्राफ्ट मतदाता सूची में लगभग 65.2 लाख नामों को हटा दिया है, जिसमें 22 लाख मृतक, 35 लाख स्थायी रूप से पलायन कर चुके और 7 लाख डुप्लिकेट नाम शामिल हैं। लेकिन सवाल यह है कि अगर ये नाम अब अयोग्य हैं, तो 2024 के लोकसभा चुनाव में इन वोटों की वैधता क्या थी? इन्हीं वोटों से कई सांसद चुने गए, जिनके समर्थन से नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। क्या यह प्रक्रिया वास्तविक सुधार है या कोई गहरा खेल?
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एक वरिष्ठ पत्रकार के रूप में, मैंने बिहार के ग्रामीण इलाकों में जाकर देखा है कि कैसे कम पढ़े-लिखे लोग इस प्रक्रिया से त्रस्त हैं। उदाहरण के लिए, एक विवाहित महिला का नाम काट दिया जाता है क्योंकि उसके ससुराल का वोटर आईडी मान्य नहीं माना जाता। आयोग कहता है, "मायके से माता-पिता का प्रमाण-पत्र लाओ।" यह कितना व्यावहारिक है? बिहार जैसे पिछड़े राज्य में, जहां ग्रामीण महिलाएं पहले ही कई चुनौतियों का सामना कर रही हैं, यह प्रक्रिया उन्हें और अधिक परेशान कर रही है। 2003 की पुरानी मतदाता सूची से भी नाम कट रहे हैं, जबकि ये लोग दशकों से वोट डालते आ रहे हैं।
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और फिर आधार कार्ड का सवाल। चुनाव आयोग आधार को मान्यता नहीं दे रहा, बल्कि जन्म प्रमाण-पत्र या आवासीय प्रमाण-पत्र मांग रहा है। अगर आधार इतना ही अविश्वसनीय है, तो सरकार क्यों हर जगह इसे अनिवार्य कर रही है? बैंक खाता, राशन कार्ड, यहां तक कि मोबाइल सिम तक आधार से जुड़े हैं। यह विरोधाभास समझ से परे है। क्या यह सिर्फ बिहार में मतदाताओं को दबाने का तरीका है?
चुनाव आयोग का दावा है कि SIR से 99.86% मतदाताओं की जांच हुई है, और यह प्रक्रिया पारदर्शी है। लेकिन विपक्षी दल इसे "वोट चोरी" करार दे रहे हैं। राहुल गांधी और अन्य नेता संसद से सड़क तक विरोध कर रहे हैं, दावा कर रहे कि वैध मतदाताओं को हटाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर संज्ञान लिया है, और आयोग को निर्देश दिया है कि कोई नाम बिना नोटिस के न हटाया जाए।
बिहार की कुल मतदाता संख्या 7.23 करोड़ है, और 65 लाख नाम हटने से यह 5% से अधिक है। अगर यह स्तर पर लागू हुआ, तो क्या होगा? क्या यह पुरानी धांधली को सुधार रहा है या नई साजिश रच रहा है? ग्रामीण बिहार के लोग दर-दर भटक रहे हैं, अपने नाम जुड़वाने के लिए। एक किसान ने मुझसे कहा, "साहब, हमारा वोट ही हमारी आवाज है, उसे छीन लिया तो क्या बचेगा?"
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यह समय है कि चुनाव आयोग पारदर्शिता सुनिश्चित करे। आधार जैसे दस्तावेजों को मान्यता दें, और ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष कैंप लगाएं। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब हर मतदाता का अधिकार सुरक्षित रहेगा।
जनता की राय
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर जनता की राय बंटी हुई है। लगभग 60% यूजर्स SIR को फर्जी वोटों की सफाई मानते हैं, कहते हुए, "35 लाख फेक वोट हटे, यह तो अच्छा कदम है।" लेकिन 40% इसे "लोकतंत्र पर हमला" और "वोट चोरी" करार दे रहे हैं। एक यूजर ने लिखा, "ग्रामीण लोग कहां जन्म प्रमाण-पत्र लाएं? यह गरीबों के खिलाफ है।" दूसरी ओर, कुछ यूजर्स का कहना है, "सीमांचल में अवैध घुसपैठिए मतदाता बने थे, इसे साफ करना जरूरी था।"
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मेरा विश्लेषण
एक पत्रकार के तौर पर, मैंने बिहार के गांवों में लोगों की परेशानी देखी है। SIR प्रक्रिया का मकसद अगर मतदाता सूची को शुद्ध करना है, तो यह स्वागतयोग्य है। लेकिन जब वैध मतदाताओं, खासकर ग्रामीण और महिलाओं, को परेशान किया जा रहा है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा है। आधार कार्ड को खारिज करना और जटिल दस्तावेज मांगना बिहार जैसे राज्य में अव्यावहारिक है, जहां शिक्षा और संसाधन सीमित हैं। मेरी राय में, चुनाव आयोग को पारदर्शिता बढ़ानी चाहिए, आधार को सत्यापन के लिए स्वीकार करना चाहिए, और ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष कैंप लगाकर लोगों की मदद करनी चाहिए। अगर यह प्रक्रिया निष्पक्ष नहीं रही, तो यह 2025 के बिहार विधानसभा चुनावों की निष्पक्षता पर सवाल उठाएगी।
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लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार हैं और लोकतंत्र की रक्षा में सक्रिय जन-लेखन से जुड़े हुए हैं।
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