ट्रंप ने टैरिफ बढ़ाया तो भारत ने उठाया बड़ा कदम! आगे क्या है प्लानिंग?
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खबर का सार :भारत की बंद अर्थव्यवस्था से 1991 के LPG सुधारों तक की यात्रा ने सबक दिया कि संरक्षणवाद फायदेमंद नहीं। ट्रंप की नीतियों ने अर्थशास्त्र की सच्चाइयों को नजरअंदाज किया, जिससे अमेरिका को नुकसान हुआ। भारत को निर्यात बढ़ाना चाहिए, विदेशी निवेश आसान करना चाहिए, और अमेरिका के दबाव में न झुकते हुए अपने हितों की रक्षा करनी चाहिए।
📝We News 24 :डिजिटल डेस्क » प्रकाशित: 10 अगस्त 2025, 19:15 IST
रिपोर्टिंग सूत्र / काजल कुमारी
नई दिल्ली, भारत की आर्थिक यात्रा में एक समय था जब विदेशी व्यापार, खासकर आयात को लेकर हमारा नजरिया बेहद संकीर्ण था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन और अंतरराष्ट्रीय सहयोग की बड़ी-बड़ी बातें होने के बावजूद, हम दूसरे देशों से व्यापार और विदेशी निवेश में बेहद सतर्क रहते थे। चार दशकों तक अर्थव्यवस्था के दरवाजे बंद रखे गए, आयात-निर्यात पर सख्त नियम लागू थे। हर सामान के लिए लाइसेंस और परमिट की जरूरत पड़ती थी, और ज्यादातर आयात-निर्यात सरकारी निगमों के जरिए ही होता था। एक मुख्य नियंत्रक और उनकी टीम का काम ही यही था कि कौन आयात-निर्यात कर सकता है और कौन नहीं। यह सिस्टम भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया, लेकिन किसी ने सवाल नहीं उठाया कि आयात नियंत्रण तो ठीक, लेकिन निर्यात पर भी क्यों पाबंदियां?
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1990-91 के संकट ने खोली आंखें
नतीजा? निर्यात नहीं बढ़ा, निर्यात-उन्मुख उद्योग नहीं बने, और विदेशी मुद्रा भंडार में कोई खास इजाफा नहीं हुआ। जबकि हमारे जैसे कई विकासशील देशों ने अर्थव्यवस्था खोल दी, मुक्त व्यापार अपनाया और समृद्ध हो गए। फिर 1990-91 में जब भारत गंभीर आर्थिक संकट में फंस गया, तो मजबूरी में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) सुधार करने पड़े। गैर-शुल्क बाधाएं हटाई गईं, GATT पर हस्ताक्षर किए, WTO में शामिल हुए, और मुक्त व्यापार समझौते किए। धीरे-धीरे लोग खुली अर्थव्यवस्था को अपनाने लगे। लेकिन विडंबना देखिए, जब विकासशील देश खुले तो विकसित देश संरक्षणवादी बनने लगे। इसमें सबसे आगे थे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप।
ट्रंप की नीतियां: अर्थशास्त्र की सच्चाइयों को नजरअंदाज
ट्रंप ने ऊंचे शुल्क, गैर-शुल्क बाधाएं लगाकर आयात को हतोत्साहित किया और अमेरिकी कंपनियों को विदेश में फैक्ट्रियां लगाने से डराया। उनका मानना था कि इससे अमेरिका को फायदा होगा, लेकिन उन्होंने अर्थशास्त्र की बुनियादी सच्चाइयों को नजरअंदाज कर दिया। देशों को टैरिफ से दबाया—झुकने वालों को इनाम (जैसे ऑस्ट्रेलिया, जापान), न झुकने वालों को सजा (कनाडा, ब्रिटेन)। भारत को भी स्टील, एल्युमिनियम, तांबे और रूसी तेल पर भारी शुल्क झेलने पड़े। अब भारत के पास न झुकने का विकल्प है, न जरूरत। हमें साफ कहना चाहिए कि बातचीत के लिए तैयार हैं, लेकिन अपने हितों पर अडिग रहेंगे। ट्रंप की नीतियों से अमेरिका में कीमतें बढ़ीं, महंगाई चढ़ी, नौकरियां नहीं बढ़ीं, और विकास दर धीमी हुई। शायद 2026 के चुनाव में उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़े।
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भारत के लिए सबक: आलसी निर्यातक बने रहना छोड़ो
ट्रंप दौर ने भारत को सिखाया कि संरक्षणवाद लंबे समय तक नहीं चलता। हमें आलसी निर्यातक बने रहने की आदत छोड़नी होगी। उत्पादों और बाजारों का दायरा बढ़ाना होगा, विदेशी निवेश के नियम आसान करने होंगे, और निर्यातकों को छोटे समय में प्रोत्साहन देना होगा। अगर जरूरी हो तो विनिमय दर में बदलाव या गैर-जरूरी आयात पर रोक लगानी होगी। विदेश नीति का सीधा सबक है: झुकेंगे तो गिरा दिए जाएंगे। पीएम मोदी ने शायद ट्रंप के साथ दोस्ती में यह बात भूल गए थे, लेकिन अब वक्त है अमेरिका को साफ संदेश देने का—हम अपने हितों की रक्षा करेंगे, निष्पक्ष व्यापार के लिए दरवाजे खुले हैं, और बातचीत-समझौते के लिए तैयार हैं। चाहे रास्ता कितना मुश्किल क्यों न हो।
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वैश्विक व्यापार में भारत की स्थिति
आज भारत की अर्थव्यवस्था 3.5 ट्रिलियन डॉलर की हो चुकी है, और निर्यात 2024 में 450 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। लेकिन अभी भी चुनौतियां हैं—चीन और वियतनाम जैसे देशों से प्रतिस्पर्धा, और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध का असर। WTO के नियमों के तहत भारत को अपने बाजार को और खोलना होगा, लेकिन संरक्षणवाद के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा।
हमारी राय: ट्रंप की संरक्षणवाद भारत के लिए एक आईना है—बंद दरवाजे विकास को रोकते हैं। मोदी सरकार को निर्यात-उन्मुख नीतियां अपनानी चाहिए, न कि सिर्फ राजनीतिक दोस्ती पर निर्भर रहना। वैश्विक व्यापार में भारत मजबूत हो सकता है, लेकिन इसके लिए साहसिक कदम उठाने होंगे, जैसे निवेश नियमों में सुधार और बाजार विविधीकरण। संरक्षणवाद की जगह मुक्त लेकिन निष्पक्ष व्यापार ही सही रास्ता है।
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