क्या भारत वास्तव में आजाद है? 78 वर्षों की आजादी का एक कड़वा विश्लेषण
📝We News 24 :डिजिटल डेस्क » प्रकाशित: 15 अगस्त 2025, 06:15 IST
लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार
नई दिल्ली:- 15 अगस्त, 2025। आज भारत अपनी आजादी के 78 वर्ष पूरे कर रहा है। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री बड़े-बड़े वादे करेंगे, राष्ट्र को संबोधित करेंगे, और देशभक्ति के गीत गूंजेंगे। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम वास्तव में आजाद हैं? क्या अंग्रेजों के जाने के बाद सिस्टम बदला, या सिर्फ चेहरे? लोग बदले, शासन बदले, लेकिन स्थिति वही पुरानी है—भ्रष्टाचार, अन्याय, और आम आदमी की पीड़ा।
आजादी से पहले अंग्रेजों का राज था, जहां बोलने की आजादी नहीं थी। आजादी के बाद भी सरकार की आलोचना को देशद्रोह माना जाता है। आइए, आजादी से पहले और बाद के बदलावों का विश्लेषण करें, कांग्रेस सरकारों, अन्य सरकारों और वर्तमान भाजपा सरकार के कार्यकाल को देखें। नेहरू कैसे प्रधानमंत्री बने, इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी क्यों लगाई, और आज की हकीकत—what has really changed?
15 अगस्त 1947 — वह दिन, जिसे हम "स्वतंत्रता दिवस" के रूप में बड़े गर्व और धूमधाम से मनाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत सच में आज़ाद हो गया? या केवल अंग्रेज़ी हुकूमत की जगह देसी सत्ता आ गई और व्यवस्था वही रही?
आजादी से पहले: औपनिवेशिक शोषण की जड़ें
आजादी से पहले भारत ब्रिटिश साम्राज्य का गुलाम था। अर्थव्यवस्था लूट की गई, किसान और मजदूर दबाए गए। न्याय व्यवस्था अंग्रेजों के हित में थी, जहां भारतीयों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता था। विभाजन की साजिशें रची गईं, जिसके परिणामस्वरूप 1947 में भारत का बंटवारा हुआ। धर्म के आधार पर देश टूटा—पाकिस्तान बना, लेकिन लाखों मुसलमान भारत में ही रह गए। यह बंटवारा हिंसा, विस्थापन और नफरत की विरासत छोड़ गया। स्वतंत्रता संग्राम में गांधी, नेहरू, पटेल जैसे नेता थे, लेकिन आजादी की कीमत लाखों जानों से चुकाई गई।
आजादी के बाद उम्मीद थी कि देश में पारदर्शिता, बराबरी और विकास आएगा। लेकिन सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ने भी जनता की आवाज़ को दबाना शुरू कर दिया। नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने — यह इतिहास का सबसे बड़ा राजनीतिक मोड़ था, क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रशासनिक क्षमता और संगठन शक्ति सबको ज्ञात थी, फिर भी उन्हें दरकिनार कर दिया गया।
आजादी के बाद: नेहरू का उदय और प्रारंभिक वर्ष
1947 में आजादी मिली, लेकिन प्रधानमंत्री कौन बने? सरदार वल्लभभाई पटेल, जिन्होंने रियासतों को एकजुट किया, या जवाहरलाल नेहरू? इतिहास बताता है कि 1946 में कांग्रेस के प्रांतीय समितियों (PCC) में 15 में से 12 ने पटेल को अध्यक्ष के लिए चुना था, कोई भी नेहरू का नाम नहीं लिया। लेकिन महात्मा गांधी ने पटेल से नाम वापस लेने को कहा, क्योंकि वे नेहरू को युवा, आधुनिक और अंतरराष्ट्रीय छवि वाला मानते थे। पटेल को रूढ़िवादी विचारों वाला समझा गया। इस तरह नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने। क्या यह लोकतांत्रिक था? या गांधी की व्यक्तिगत पसंद?
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प्रारंभिक कांग्रेस सरकारों (1947-1964, नेहरू युग) में कुछ बदलाव आए: संविधान बना, लोकतंत्र स्थापित हुआ, पंचवर्षीय योजनाएं शुरू हुईं। लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत हुईं। 1948 का जीप घोटाला पहला बड़ा राजनीतिक भ्रष्टाचार था। अर्थव्यवस्था में लाइसेंस राज ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया। 1947 में 1 अमेरिकी डॉलर की कीमत लगभग 3.30 रुपये थी, न कि 1:1 जैसा मिथक प्रचलित है। आज 1 डॉलर 85 रुपये के आसपास है—यह मुद्रा अवमूल्यन विकास की कमी को दर्शाता है।
इंदिरा गांधी का युग: इमरजेंसी और तानाशाही की छाया
1966-1977 और 1980-1984 में इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार। गरीबी हटाओ का नारा दिया, लेकिन 1975 में इमरजेंसी क्यों लगाई? कारण: राजनीतिक अस्थिरता, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनकी चुनावी जीत को अमान्य कर दिया, विपक्षी आंदोलन (जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में), और आंतरिक-बाहरी खतरे का बहाना। 21 महीनों तक नागरिक अधिकार निलंबित, प्रेस सेंसर, विपक्षी जेल में। यह लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला था। भ्रष्टाचार बढ़ा—बैंकों का राष्ट्रीयकरण अच्छा था, लेकिन बोफोर्स घोटाला जैसे कांड ने छवि खराब की। अन्य सरकारों (जैसे जनता पार्टी, 1977-1980) में भी अस्थिरता रही, लेकिन भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ।
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अन्य सरकारें और 1990 के बाद: उदारीकरण से भ्रष्टाचार का चरम
1980-90 के दशक में कांग्रेस (राजीव गांधी) और गठबंधन सरकारों (वीपी सिंह, चंद्रशेखर) में घोटाले बढ़े। 1991 का उदारीकरण (पीवी नरसिम्हा राव) ने अर्थव्यवस्था खोली, लेकिन हर्षद मेहता स्टॉक घोटाला जैसे कांड हुए। 1999-2004 की एनडीए (भाजपा नेतृत्व) और 2004-2014 की यूपीए (कांग्रेस) में 2जी, कोलगेट, कॉमनवेल्थ जैसे मेगा घोटाले। भ्रष्टाचार हर सरकार में रहा—लाइसेंस, कर, पुलिस, सार्वजनिक खरीद में। आजादी के बाद भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति बढ़ी, क्योंकि जटिल नियम, अपारदर्शी नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप। ये सभी स्कैम्स देश की छवि को दुनिया भर में बदनाम कर गए।
दरअसल, भ्रष्टाचार किसी एक पार्टी की बीमारी नहीं रहा—यह हर सरकार में रहा। लाइसेंस देने से लेकर कर संग्रह, पुलिस विभाग से लेकर सार्वजनिक खरीद तक—हर जगह दलाल, कमीशनखोर और रिश्वतखोरी का जाल फैला। आज़ादी के बाद से यह प्रवृत्ति और गहरी होती गई, क्योंकि हमारे सिस्टम में जटिल नियम, अपारदर्शी नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप ने ईमानदारी के लिए कोई जगह ही नहीं छोड़ी।"
वर्तमान भाजपा सरकार: वादे vs हकीकत
2014 में सत्ता संभालते हुए बीजेपी ने ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे बड़े-बड़े वादे किए। भ्रष्टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ का दावा किया गया। लेकिन सवाल वही है—क्या बदला?
विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी जैसे अरबों के भगोड़े आर्थिक अपराधी अब भी विदेशों में ऐश कर रहे हैं। 2025 तक भी उनकी प्रत्यर्पण प्रक्रिया सिर्फ फाइलों में और कूटनीतिक बयानों में सीमित है। ब्रिटेन से सहयोग की बातें होती हैं, लेकिन नतीजा—शून्य।
विडंबना यह है कि किसी गरीब पर ₹10,000 का लोन बकाया हो, तो बैंक उसकी जमीन-जायदाद जब्त कर लेते हैं, जबकि अरबों रुपये लूटने वालों के खिलाफ़ न तो संपत्ति कुर्की में तेजी है, न सज़ा का अता-पता।
देश की राजधानी दिल्ली में भी हालात बेहद चिंताजनक हैं—बिजली, पानी, सड़क और सफाई जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी अब भी बनी हुई है। जगह-जगह कूड़े के ढेर, खुले नाले और स्लम बस्तियां गंदगी और बीमारी का घर बनी हैं। 2025 में भी बेघरों के लिए पर्याप्त शेल्टर होम नहीं हैं, और हर सर्दी में सैकड़ों लोग ठंड से मर जाते हैं। यह तस्वीर बताती है कि सत्ता बदलने से व्यवस्था नहीं बदलती—अगर नीयत और प्राथमिकताएं जनता के पक्ष में न हों।"
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2014 से भाजपा सरकार। डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया जैसे वादे। भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस का दावा, लेकिन क्या बदला? विजय माल्या, नीरव मोदी, ललित मोदी जैसे भगोड़े आर्थिक अपराधी अब भी विदेश में हैं। 2025 तक भी उनकी प्रत्यर्पण प्रक्रिया लंबित है, ब्रिटेन से सहयोग की बातें हो रही हैं, लेकिन नतीजा शून्य। गरीब पर 10 हजार का लोन बकाया हो तो बैंक संपत्ति जब्त कर लेते, लेकिन अरबों लूटने वालों का कुछ नहीं। दिल्ली की राजधानी में बुनियादी सुविधाएं—बिजली, पानी, सड़क, सफाई—अब भी समस्या। कूड़े के ढेर, खुले नाले, स्लम में कमी नहीं। 2025 में भी बेघरों के लिए शेल्टर अपर्याप्त, सर्दियों में मौतें।
कोलेजियम सिस्टम – न्यायपालिका की ‘गुप्त सरकार’
"आज इस देश में एक चपरासी की नौकरी पाने के लिए भी लिखित परीक्षा, इंटरव्यू और मेरिट लिस्ट से गुजरना पड़ता है। लेकिन एक जज की नियुक्ति? — वह तो कुछ गिने-चुने लोगों के बंद कमरे में बैठकर तय कर दी जाती है। यही है भारत का कोलेजियम सिस्टम — जिसमें देरी, पूर्वाग्रह और पारदर्शिता की पूरी तरह कमी है।"
कई बार ऐसे लोग भी न्यायमूर्ति बन जाते हैं जिन्हें भारतीय समाज, संस्कृति या हिंदू धर्मग्रंथों का गहरा ज्ञान नहीं होता। उनमें से बहुत से अंग्रेज़ी माध्यम के कन्वेंट स्कूलों से पढ़कर आते हैं, जिनके पूर्वज ब्रिटिश दौर में जज या ऊँचे अफसर रहे हैं। वे 'न्यायमूर्ति' जैसे भारतीय मूल के शब्द से भी परहेज़ करते हैं, और अंग्रेज़ी पदवियों को प्राथमिकता देते हैं। यह पूरी व्यवस्था कहीं न कहीं उसी औपनिवेशिक मानसिकता की देन है, जो अंग्रेज़ों के समय अफसरशाही में हावी थी — सत्ता जनता से दूर, और फैसले सिर्फ ‘ऊपर’ से आने वाले।
78 साल का सफर – बदलते चेहरे, न बदलती व्यवस्था
1947 से 2025 तक, हमने कांग्रेस, गठबंधन सरकारें और बीजेपी — सब देखी हैं। लेकिन आम आदमी के लिए क्या बदला?
- भ्रष्टाचार अभी भी कायम है।
- न्याय प्रणाली अब भी धीमी और महंगी है।
- राजनीति में परिवारवाद और धनबल हावी है।
- ग्रामीण और शहरी गरीब मूलभूत अधिकारों से वंचित हैं।
क्या यही है ‘असली आज़ादी’?
असली आज़ादी तब होगी जब —
- हर नागरिक को निष्पक्ष न्याय समय पर मिले।
- सरकारें जनता से डरें, न कि जनता सरकार से।
- भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस हो।
- हर नागरिक को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार बराबरी से मिले।
- न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया — सभी में पारदर्शिता हो।
आज भारत के स्वतंत्र हुए 78 साल पूरे हो रहे हैं। लेकिन सच यह है कि हम केवल ‘सत्ता परिवर्तन’ देख पाए हैं, ‘व्यवस्था परिवर्तन’ नहीं। आज़ादी का मतलब सिर्फ तिरंगा लहराना नहीं, बल्कि नागरिकों को वह सम्मान और अधिकार दिलाना है, जिसके लिए लाखों लोगों ने बलिदान दिया।
अंतिम विचार : सच्ची आजादी कहां?
78 वर्षों में बदलाव आए—अर्थव्यवस्था बढ़ी, तकनीक आई, लेकिन आम आदमी की पीड़ा वही। भ्रष्टाचार चरम पर, अमीर भाग जाते हैं, गरीब कुचले जाते हैं। क्या यह आजादी है? सभी सरकारों—कांग्रेस, अन्य, भाजपा—ने वादे किए, लेकिन सिस्टम नहीं बदला। हमें पारदर्शी न्याय, भ्रष्टाचार-मुक्त शासन, और बुनियादी सुविधाओं की जरूरत है। अन्यथा, लाल किले के भाषण सिर्फ खोखले रहेंगे। जय हिंद!
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लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार हैं और लोकतंत्र की रक्षा में सक्रिय जन-लेखन से जुड़े हुए हैं।
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