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    पिता की हत्या ने बदली शिबू सोरेन की ज़िंदगी: 'दिशोम गुरु' की जंगल-जमीन और आदिवासी हक की जंग, धनकटनी आंदोलन की अनसुनी दास्तान

    पिता की हत्या ने बदली शिबू सोरेन की ज़िंदगी: 'दिशोम गुरु' की जंगल-जमीन और आदिवासी हक की जंग, धनकटनी आंदोलन की अनसुनी दास्तान
     Photo: ITG


    शिबू सोरेन ने आदिवासी हितों के लिए एक महत्वपूर्ण आंदोलन चलाया। उन्होंने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ धनकटनी आंदोलन शुरू किया जिसके बाद उन्हें दिशोम गुरु की उपाधि मिली। एके राय और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया और अलग झारखंड की मांग की। टुंडी का पोखरिया आश्रम उनके आंदोलन का केंद्र रहा।


    📝We News 24 :डिजिटल डेस्क » रिपोर्टिंग सूत्र / अर्जुन साहू  / प्रकाशित: 04 अगस्त 2025, 13:50 IST


    रांची:- झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक शिबू सोरेन, जिन्हें आदिवासी समाज 'दिशोम गुरु' के नाम से जानता है, ने अपनी जिंदगी आदिवासियों के हक और सम्मान की लड़ाई में समर्पित कर दी। 1996 में लोकसभा में उनका बयान, "जल, जंगल, जमीन हमारा है। हम जंगल-झाड़ में रहने वाले आदिवासी हैं। जब तक आदिवासी हितों की बात नहीं होगी, देश में विकास की बातें बेमानी हैं," आज भी गूंजता है। यह बयान केवल शब्द नहीं, बल्कि उनके दशकों लंबे संघर्ष और आदिवासी समाज के दर्द की कहानी है। धनबाद के टुंडी में शुरू हुए धनकटनी आंदोलन ने उन्हें आदिवासियों का मसीहा बनाया। आइए, उनकी इस प्रेरणादायक यात्रा पर नजर डालते हैं।


    धनकटनी आंदोलन: आदिवासियों को मिला 'दिशोम गुरु'


    शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को रामगढ़ (तब बिहार, अब झारखंड) के एक संथाल आदिवासी परिवार में हुआ था। मात्र 13 वर्ष की उम्र में उनके पिता सोबरन मांझी की साहूकारों द्वारा हत्या ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। पढ़ाई छोड़कर उन्होंने आदिवासियों पर हो रहे शोषण के खिलाफ आवाज उठानी शुरू की। धनबाद के टुंडी प्रखंड में साहूकारों और महाजनों द्वारा आदिवासियों की जमीन हड़पने और सूदखोरी की प्रथा के खिलाफ उन्होंने धनकटनी आंदोलन शुरू किया।



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    यह आंदोलन 1970 के दशक में टुंडी के पोखरिया आश्रम से शुरू हुआ, जो आदिवासी जागृति का केंद्र बन गया। शिबू सोरेन और उनके साथी दिनभर जंगलों में रहते और रात होते ही महाजनों के खेतों में पहुंचकर हड़पी गई जमीनों पर लगी फसल काट लेते। उनकी एक आवाज पर हजारों आदिवासी तीर-धनुष लेकर आंदोलन में शामिल हो जाते। इस साहस और नेतृत्व ने उन्हें 'दिशोम गुरु' (विश्व का गुरु) की उपाधि दिलाई। आज भी टुंडी का पोखरिया आश्रम आदिवासी समाज के लिए एक तीर्थस्थल की तरह है, जहां लोग शिबू सोरेन को देवता की तरह पूजते हैं।


    पिता की हत्या ने बदली शिबू सोरेन की ज़िंदगी: 'दिशोम गुरु' की जंगल-जमीन और आदिवासी हक की जंग, धनकटनी आंदोलन की अनसुनी दास्तान
     Photo: ITG


    झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन


    शिबू सोरेन का संघर्ष केवल आदिवासी हितों तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने मजदूरों और सामाजिक न्याय की लड़ाई को भी गति दी। 1973 में धनबाद के चिरागोड़ा में उनके दो महान सहयोगी, कामरेड एके राय और बिनोद बिहारी महतो (बिनोद बाबू), के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की नींव रखी गई। यह संगठन आदिवासियों, मजदूरों, और सामाजिक हितों की रक्षा के लिए समर्पित था।


    4 फरवरी 1973 को धनबाद के गोल्फ ग्राउंड में आयोजित एक सभा में शिबू सोरेन पहली बार सार्वजनिक मंच पर आए। यहीं से उनकी छवि एक जननायक के रूप में उभरी। JMM ने अलग झारखंड राज्य की मांग को और तेज किया, जो 15 नवंबर 2000 को साकार हुआ। इस आंदोलन में शिबू सोरेन की भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता।


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    आदिवासियों को दी हक की आवाज


    शिबू सोरेन ने आदिवासियों को न केवल जागरूक किया, बल्कि उन्हें उनके हक के लिए लड़ना भी सिखाया। उन्होंने कहा था, "हक के लिए लड़ना सीखो।" टुंडी के जंगलों में उनके नेतृत्व में हजारों आदिवासियों ने साहूकारों के खिलाफ मोर्चा खोला। महाजनों द्वारा हड़पी गई जमीनों को वापस लेने और सूदखोरी की प्रथा को खत्म करने के लिए उनका आंदोलन 1972 से 1976 तक चरम पर रहा। प्रसिद्ध कवि स्व. अजीत राय की पुस्तक फर्क होगा कि तुमने राय का को देखा होगा में इस आंदोलन का जिक्र है, जिसमें बताया गया कि कैसे शिबू सोरेन ने आदिवासी समाज को एकजुट कर उन्हें उनके अधिकार दिलाए।


    शिबू सोरेन की राजनीतिक यात्रा


    शिबू सोरेन ने अपनी राजनीति को हमेशा जनता के हितों से जोड़ा। वह सात बार दुमका से लोकसभा सांसद रहे, तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने, और केंद्रीय कोयला व खान मंत्री के रूप में भी कार्य किया। हालांकि, उनके करियर में कई विवाद भी रहे, जैसे 1994 में उनके निजी सचिव शशिनाथ झा की हत्या का मामला, जिसमें उन्हें बाद में बरी कर दिया गया। उनकी मेहनत और समर्पण ने JMM को झारखंड की राजनीति में एक मजबूत पहचान दी।



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    पोखरिया आश्रम: आंदोलन का गवाह


    टुंडी का पोखरिया आश्रम आज भी उस ऐतिहासिक आंदोलन की गवाही देता है। यह स्थान आदिवासियों के लिए एक प्रेरणा स्थल है, जहां शिबू सोरेन ने न केवल आंदोलन की रणनीति बनाई, बल्कि समाज को जागरूक करने का काम भी किया। आज भी आदिवासी समुदाय इस आश्रम को पूजनीय मानता है और इसे अपनी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा मानता है।


    अंतिम विचार


    शिबू सोरेन, यानी 'दिशोम गुरु', की कहानी केवल एक नेता की नहीं, बल्कि एक ऐसे योद्धा की है, जिसने अपने समुदाय के लिए जंगल-जमीन की लड़ाई लड़ी। धनकटनी आंदोलन और JMM के गठन ने न केवल झारखंड को एक नई पहचान दी, बल्कि आदिवासियों को उनके हक और सम्मान की आवाज भी दी। उनकी यह विरासत आज भी झारखंड के लोगों के दिलों में जीवित है। टुंडी का पोखरिया आश्रम और उनका संघर्ष आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।


    आपकी राय: शिबू सोरेन के धनकटनी आंदोलन और JMM की स्थापना ने झारखंड को कैसे बदला? उनके योगदान को आप कैसे देखते हैं? अपनी राय कमेंट में साझा करें। 



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