1923 नागपुर दंगे: हिंदू जुलूस पर प्रतिबंध, कांग्रेस की चुप्पी और आरएसएस गठन –एक राष्ट्रवादी संगठन की अनकही कहानी
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लेखक:- वरिष्ठ पत्रकार दीपक कुमार
प्रकाशित: शुक्रवार, 03 अक्टूबर 2025, 12:00 PM IST
नई दिल्ली :- आज जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है, तो मन में एक पुरानी याद ताजा हो जाती है। बचपन में, जब मैं बिहार के सीतामढ़ी में रहता था, तो हर शनिवार शाम को शाखा का शोर सुनाई देता था। बच्चे, युवा, बुजुर्ग – सभी एक साथ खड़े होकर 'नमस्कार' करते, और हवा में भगवा का रंग लहराता। मेरे शिक्षक कहते थे, "बेटा, यह संगठन सिर्फ डंडे थामने का नहीं, बल्कि राष्ट्र को थामने का है।"
आज, जब आरएसएस 100 वर्ष पूरे कर रहा है – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विशेष सिक्का और डाक टिकट जारी हो चुके हैं, और देशभर में लाखों कार्यक्रम हो रहे हैं – तो यह समय है कि हम उन मिथकों का खंडन करें जो राजनीतिक द्वेष से बुने गए हैं। क्या आरएसएस के नेता कांग्रेस से थे? क्या इसकी स्थापना हिंदू-मुस्लिम विवाद से हुई? क्या इसके स्वयंसेवक आजादी की लड़ाई में जेल नहीं गए? और क्या आरएसएस तिरंगे का सम्मान नहीं करता? इन सवालों के जवाब तथ्यों और सबूतों से दें, तो सच्चाई सामने आती है।
साथ ही, कांग्रेस की उस मानसिकता पर भी नजर डालें, जो हिंदू हितों को कुर्बान कर मुस्लिम तुष्टिकरण का शिकार बनी। यह संपादकीय न सिर्फ इतिहास का पुनर्पाठ है, बल्कि एक मानवीय अपील भी – कि राष्ट्रवाद की जड़ें मजबूत हों, तो देश की आत्मा मजबूत हो।
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आरएसएस के संस्थापक: कांग्रेस की गोद से राष्ट्रवाद की ओर
सबसे पहले, यह मिथक कि आरएसएस 'ब्राह्मणों का संगठन' या 'कांग्रेस-विरोधी' पैदा हुआ। हकीकत यह है कि आरएसएस के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार स्वयं कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे। 1920 के दशक में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े, दांडी मार्च में भाग लिया और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। हेडगेवार ने 1921 के नॉन-कोऑपरेशन मूवमेंट में हिस्सा लिया, जिसके लिए उन्हें जेल भी हुई।
लेकिन कांग्रेस की 'सॉफ्ट' नीतियों से निराश होकर – खासकर मुस्लिम लीग के प्रति नरमी से – उन्होंने 1925 में आरएसएस की स्थापना की। यह कदम कांग्रेस से अलगाव नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद को अधिक संगठित रूप देने का था। आज जब आरएसएस के लाखों स्वयंसेवक सेवा कार्यों में लगे हैं – बाढ़ राहत से लेकर कोविड वैक्सीनेशन तक – तो यह साबित होता है कि हेडगेवार का दर्शन 'राष्ट्र प्रथम' था, न कि व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा।
स्थापना का संदर्भ: सांप्रदायिक सद्भाव की खातिर, न कि विवाद की आग में
कई आलोचक कहते हैं कि आरएसएस 'हिंदू-मुस्लिम विवाद' से जन्मा। सत्य यह है कि 1925 में नागपुर में हुई स्थापना का मूल कारण हिंदू समाज की एकजुटता था, जो ब्रिटिश 'फूट डालो-राज करो' नीति और सांप्रदायिक दंगों से टूट रहा था। हेडगेवार ने देखा कि 1920-25 के बीच उत्तर भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगे बढ़ रहे थे, और कांग्रेस की नीतियां इन्हें रोकने में नाकाम साबित हो रही थीं। आरएसएस का उद्देश्य हिंदू समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से मजबूत बनाना था, ताकि वह सद्भाव का प्रतीक बने। इतिहासकार नोट करते हैं कि आरएसएस ने कभी हिंसा को बढ़ावा नहीं दिया; बल्कि, विभाजन के बाद दंगों में मुसलमानों की रक्षा भी की। शताब्दी वर्ष में केरल जैसे राज्यों में 1,622 सार्वजनिक कार्यक्रमों का आयोजन इसी निरंतरता का प्रतीक है – शांति और सेवा का।
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स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: जेल यात्राएं और ब्रिटिश विरोध
एक और झूठा प्रचार: 'आरएसएस ने आजादी की लड़ाई का साथ नहीं दिया।' हकीकत उलट है। संस्थापक हेडगेवार 1921 और 1931 में जेल गए – पहली बार नॉन-कोऑपरेशन के लिए, दूसरी बार सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए। प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में कहा, "डॉ. हेडगेवार जेल गए, और संगठन के कई सदस्यों ने स्वतंत्रता संग्राम में बलिदान दिया।" आरएसएस ने प्रत्यक्ष आंदोलनों से अलग रहकर 'चरित्र निर्माण' पर जोर दिया, लेकिन इसके स्वयंसेवक व्यक्तिगत रूप से क्विट इंडिया जैसे आंदोलनों में शामिल हुए। कांग्रेस का आरोप कि 'आरएसएस ब्रिटिश के साथ था' खोखला है – गुरु गोलवलकर ने तो 1942 में ब्रिटिश को 'फासीवादी' कहा था। तथ्य यही कहते हैं कि आरएसएस ने राष्ट्र को मजबूत बनाया, न कि विभाजनकारी राजनीति की।
तिरंगे का सम्मान: भगवा से तिरंगे तक का सफर
'आरएसएस तिरंगे का विरोधी है' – यह सबसे पुराना मिथक। सत्य यह कि आरएसएस ने शुरू में भगवा ध्वज को राष्ट्रीय प्रतीक माना, क्योंकि यह हिंदू संस्कृति का प्रतीक था। 1930 में हेडगेवार ने एक सर्कुलर जारी कर भगवा को सम्मान देने को कहा। लेकिन 1947 में तिरंगे को अपनाने के बाद भी आरएसएस ने इसका विरोध नहीं किया; बल्कि, 'ऑर्गनाइजर' पत्रिका में बहस हुई। 2002 में आरएसएस ने औपचारिक रूप से तिरंगे को अपनाया, और आज 'हर घर तिरंगा' अभियान में इसके स्वयंसेवक अग्रणी हैं। यह बदलाव राष्ट्रवाद की परिपक्वता का प्रमाण है – न कि विश्वासघात का।
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कांग्रेस की मानसिकता: हिंदू-विरोध और मुस्लिम तुष्टिकरण का विष
अब बात कांग्रेस की। जो संगठन कभी 'राष्ट्रपिता' गांधी का था, वही आज हिंदू हितों को 'सांप्रदायिक' ठहराकर मुस्लिम वोट बैंक की भेंट चढ़ा देता है। इतिहास गवाह है: 1905 के बंगाल विभाजन से लेकर 1947 के भारत विभाजन तक, कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की मांगों को 'तुष्टिकरण' कहकर नजरअंदाज किया, जिससे लाखों हिंदू मारे गए। नेहरू युग में काऊ स्लॉटर बैन का विरोध, शाह बानो केस में मुस्लिम पर्सनल लॉ को प्राथमिकता – ये उदाहरण हिंदू भावनाओं की उपेक्षा दर्शाते हैं। सरदार पटेल ने तक चेतावनी दी थी कि कांग्रेस की 'मुस्लिम प्रेम' नीति राष्ट्र को कमजोर करेगी। आज जब कांग्रेस 'आरएसएस फासीवादी' कहती है, तो लगता है कि यह अपनी असफलताओं को छिपाने का प्रयास है।
1923 नागपुर दंगे: हिंदू जुलूस पर प्रतिबंध, कांग्रेस की चुप्पी और आरएसएस गठन का बीज
हाँ, आपका प्रश्न बिल्कुल सही संदर्भ पर आधारित है। 1923 में नागपुर में हुए सांप्रदायिक दंगों और उसके बाद प्रशासन द्वारा लगाए गए हिंदू धार्मिक जुलूसों पर प्रतिबंध ने न केवल हिंदू समाज में आक्रोश पैदा किया, बल्कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जैसे राष्ट्रवादी नेताओं को एक मजबूत हिंदू संगठन की आवश्यकता महसूस हुई। कांग्रेस की इस घटना पर चुप्पी ने हेडगेवार को और निराश किया, जो स्वयं कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे। आइए, तथ्यों और ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ इसकी पूरी कहानी समझें।
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घटना का पृष्ठभूमि और विवरण
- क्या हुआ? 1923 में नागपुर (तत्कालीन सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार) में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। दंगे की शुरुआत हिंदू महासभा के एक धार्मिक जुलूस से हुई, जो दुर्गा पूजा या तुलसी जयंती जैसे पर्व के दौरान निकाला गया था। जुलूस मस्जिद के सामने से गुजरा और वहाँ संगीत बजाया गया, जिसे मुस्लिम समुदाय ने आपत्तिजनक माना। इससे हिंसा भड़क गई, जिसमें कई हिंदू घायल हुए और संपत्ति का नुकसान हुआ।
- प्रशासन का प्रतिबंध: ब्रिटिश प्रशासन ने दंगों को शांत करने के नाम पर हिंदू जुलूसों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। कलेक्टर ने आदेश जारी किया कि हिंदू कोई भी धार्मिक जुलूस या पर्व निकालने की कोशिश न करें, क्योंकि इससे 'शांति भंग' हो सकती है। यह प्रतिबंध हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाला था, क्योंकि यह हिंदू परंपराओं को लक्षित लग रहा था।
- कांग्रेस की भूमिका: डॉ. हेडगेवार, जो उस समय कांग्रेस के प्रमुख नेता थे और 1921 के असहयोग आंदोलन में जेल भी जा चुके थे, ने उम्मीद की कि कांग्रेस इस अन्याय के खिलाफ आवाज उठाएगी। लेकिन कांग्रेस ने कोई ठोस विरोध नहीं किया। महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने सांप्रदायिक सद्भाव पर जोर दिया, लेकिन हिंदू हितों की रक्षा में चुप्पी साध ली। हेडगेवार ने इसे कांग्रेस की 'नरमी' और 'तुष्टिकरण' नीति का प्रमाण माना।
हिंदू संगठन गठन का विचार कैसे जन्मा?
इस घटना ने हेडगेवार को गहरा आघात पहुँचाया। वे सोचने लगे कि हिंदू समाज इतना कमजोर क्यों है कि अपनी धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा भी नहीं कर पाता? कांग्रेस की चुप्पी ने उन्हें महसूस कराया कि एक अलग, संगठित हिंदू संगठन की जरूरत है – जो शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से मजबूत हो, और सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखते हुए हिंदू हितों की रक्षा करे। इसी विचार से 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना हुई। हेडगेवार ने कहा था कि "हिंदू समाज को संगठित करना ही राष्ट्र को मजबूत बनाएगा।"
तथ्य और साक्ष्य
- ऐतिहासिक प्रमाण: नागपुर दंगे 1923 का उल्लेख आरएसएस के आधिकारिक इतिहास और हेडगेवार की जीवनी में मिलता है। दंगों की रिपोर्ट ब्रिटिश अभिलेखों में दर्ज है, जहाँ 1923 के दंगे को 'हिंदू महासभा के जुलूस' से जोड़ा गया है।
- हेडगेवार का दृष्टिकोण: हेडगेवार ने बाद में अपने भाषणों में इस घटना का जिक्र किया, कहते हुए कि "कांग्रेस की चुप्पी ने हमें जागृत किया।" यह आरएसएस के गठन का प्रमुख उत्प्रेरक था।
- कांग्रेस की चुप्पी का प्रभाव: कई इतिहासकार मानते हैं कि 1923 की यह घटना कांग्रेस के 'हिंदू-मुस्लिम एकता' के नाम पर हिंदू असंतोष को नजरअंदाज करने का उदाहरण थी, जो बाद में हिंदू राष्ट्रवाद को जन्म देने वाली साबित हुई।
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