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    भारत की न्यायपालिका:शर्मिष्ठा पनौली नुपुर और वजाहत खान: दोहरे मापदंड का सवाल ?

     

    भारत की न्यायपालिका:शर्मिष्ठा पनौली नुपुर और वजाहत खान: दोहरे मापदंड का सवाल ?



    भारत की न्यायपालिका: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या धार्मिक भावनाओं का चयनात्मक संरक्षण?

     भारत, एक ऐसा देश जहां विविध धर्म, संस्कृति और विचारधारा एक साथ सांस लेते हैं, वहां संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के सम्मान के बीच संतुलन बनाना हमेशा से एक जटिल चुनौती रहा है। हाल के कुछ मामलों, जैसे शर्मिष्ठा पनौली, नूपुर शर्मा और वजाहत खान के केस, ने इस संतुलन पर गंभीर सवाल उठाए हैं। सुप्रीम कोर्ट के इन मामलों में अलग-अलग रवैये ने जनमानस में यह धारणा पैदा की है कि क्या न्यायपालिका एक धर्म के प्रति सख्ती और दूसरे के प्रति नरमी बरत रही है? यह सम्पादकीय इस मुद्दे की गहराई में उतरकर संवैधानिक दृष्टिकोण, कानूनी निष्पक्षता और सामाजिक संदेश के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करता है।


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    शर्मिष्ठा पनौली और वजाहत खान: दोहरे मापदंड का सवाल

    शर्मिष्ठा पनौली, एक 22 वर्षीय लॉ स्टूडेंट और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर, को कोलकाता पुलिस ने एक वीडियो में कथित तौर पर पैगंबर मुहम्मद और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने के लिए गिरफ्तार किया गया। यह वीडियो ‘ऑपरेशन सिंदूर’ और पहलगाम आतंकी हमले के संदर्भ में था, जिसमें उन्होंने बॉलीवुड सितारों की चुप्पी पर सवाल उठाए। विवाद के बाद शर्मिष्ठा ने माफी मांग ली और वीडियो हटा दिया, फिर भी उनकी गिरफ्तारी हुई। कलकत्ता हाई कोर्ट ने उन्हें 5 जून 2025 को अंतरिम जमानत दी, लेकिन सख्त शर्तों के साथ, जैसे देश छोड़ने पर रोक और 10,000 रुपये का जमानत बांड। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है।


    दूसरी ओर, वजाहत खान, जिन्होंने शर्मिष्ठा के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी, खुद सांप्रदायिक और भड़काऊ टिप्पणियों के आरोप में फंसे हैं। उनके खिलाफ कोलकाता, दिल्ली और गुवाहाटी में हिंदू देवी-देवताओं, विशेष रूप से मां कामाख्या और भगवान श्रीकृष्ण, के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियों के लिए कई FIRs दर्ज हैं। कोलकाता पुलिस ने उन्हें 9 जून 2025 को हेट स्पीच के आरोप में गिरफ्तार किया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 24 जून 2025 को पश्चिम बंगाल के बाहर दर्ज FIRs में उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी और अगले आदेश तक कोई दंडात्मक कार्रवाई न करने का निर्देश दिया।


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    नूपुर शर्मा का मामला: सख्ती का प्रतीक

    नूपुर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट का रवैया और भी सख्त था। 2022 में एक टीवी डिबेट में पैगंबर मुहम्मद पर उनकी टिप्पणी के बाद देशभर में विवाद खड़ा हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा, “तुम्हारी बेलगाम जुबान ने देश में आग लगा दी है।” कोर्ट ने न केवल उनकी जमानत याचिका खारिज की, बल्कि उनकी टिप्पणियों को “असभ्य” और “अनुचित” करार दिया। नूपुर को कई FIRs का सामना करना पड़ा और उनकी जान को खतरा बना रहा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें तत्काल राहत देने से इनकार कर दिया।


    संवैधानिक दृष्टिकोण: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम धार्मिक भावनाएं

    भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन अनुच्छेद 19(2) इसे सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के आधार पर सीमित करता है। इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 295A और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 35 धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले कृत्यों को दंडनीय बनाती हैं। इन कानूनों का उद्देश्य सामाजिक सौहार्द बनाए रखना है, लेकिन इनका चयनात्मक उपयोग अक्सर सवालों के घेरे में आता है।


    शर्मिष्ठा और नूपुर के मामलों में, कोर्ट ने धार्मिक भावनाओं को प्राथमिकता दी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने का रुख अपनाया। दूसरी ओर, वजाहत खान को सुप्रीम कोर्ट से तत्काल राहत मिलना इस धारणा को बल देता है कि न्यायपालिका एक समुदाय के प्रति अधिक उदार है। सवाल उठता है: क्या हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियां उतनी ही गंभीरता से ली जाती हैं जितनी अन्य धर्मों के खिलाफ? सोशल मीडिया पर कई यूजर्स ने इस दोहरे मापदंड की आलोचना की है, जिसमें हिंदू आस्था को चोट पहुंचाने वाले बयानों को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” के दायरे में देखा जाता है, जबकि अन्य धर्मों के खिलाफ बयानों को “हेट स्पीच” करार दिया जाता है।


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    हाल के फैसलों का विश्लेषण: हिंदू बनाम मुस्लिम केस

    हाल के वर्षों में, सुप्रीम कोर्ट और अन्य अदालतों के कई फैसले इस धारणा को मजबूत करते हैं कि हिंदू और मुस्लिम समुदायों के खिलाफ हेट स्पीच के मामलों में अलग-अलग मापदंड अपनाए गए हैं। उदाहरण के लिए:

    1. नूपुर शर्मा (2022): सुप्रीम कोर्ट ने उनकी टिप्पणियों को देश में अशांति का कारण बताया और कोई राहत नहीं दी।
    2. मुनीर (2023): एक यूट्यूबर ने हिंदू देवताओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की, लेकिन मामला स्थानीय स्तर पर ही दब गया और सुप्रीम कोर्ट तक नहीं पहुंचा। कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई।
    3. वजाहत खान (2025): हिंदू देवी-देवताओं के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणियों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगा दी।
    4. शर्मिष्ठा पनौली (2025): माफी मांगने के बावजूद गिरफ्तारी हुई, और जमानत सख्त शर्तों के साथ मिली।

    हालांकि सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सोशल मीडिया और समाचार रिपोर्ट्स के आधार पर यह धारणा बन रही है कि हिंदू भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाले मामलों में कार्रवाई कम होती है। उदाहरण के लिए, यूट्यूब पर कई ऐसे मामले देखे गए हैं जहां हिंदू देवताओं के खिलाफ टिप्पणियों को “हास्य” या “अभिव्यक्ति” के रूप में खारिज कर दिया गया, जबकि अन्य धर्मों के खिलाफ टिप्पणियों पर तुरंत FIR दर्ज होती है।


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    सुप्रीम कोर्ट का रवैया: जनता को क्या संदेश?

    सुप्रीम कोर्ट का यह रवैया जनता में एक स्पष्ट संदेश देता है: कानून के सामने सभी बराबर नहीं हैं। जब नूपुर शर्मा को उनकी टिप्पणियों के लिए कठोर आलोचना और कोई राहत नहीं मिली, जबकि वजाहत खान को तत्काल अंतरिम राहत दी गई, तो यह धारणा बनती है कि न्यायपालिका धार्मिक संवेदनशीलता के मामलों में चयनात्मक रुख अपना रही है। यह न केवल संवैधानिक समानता के सिद्धांत (अनुच्छेद 14) के खिलाफ है, बल्कि सामाजिक तनाव को भी बढ़ाता है।

    सोशल मीडिया पर #ReleaseSharmistha और #IStandwithSharmishta जैसे हैशटैग्स के ट्रेंड करने से यह साफ है कि जनता में असंतोष बढ़ रहा है। कई लोग इसे “हिंदू विरोधी” रवैया मान रहे हैं, खासकर जब हिंदू देवताओं के खिलाफ टिप्पणियां करने वालों को तुलनात्मक रूप से कम सजा मिलती है। यह धारणा सामाजिक एकता के लिए खतरनाक हो सकती है, क्योंकि यह एक समुदाय में अन्याय की भावना को जन्म देती है।


    संतुलन की आवश्यकता

    भारत जैसे बहुधर्मी देश में, न्यायपालिका को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के बीच संतुलन बनाना होगा। सुप्रीम कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी धर्मों के खिलाफ हेट स्पीच को समान रूप से गंभीरता से लिया जाए। संविधान का अनुच्छेद 14 सभी के लिए समानता की गारंटी देता है, और इस सिद्धांत का उल्लंघन तब होता है जब एक धर्म के खिलाफ टिप्पणियों पर सख्ती और दूसरे पर नरमी दिखाई जाती है।


    न्यायपालिका को चाहिए कि वह न केवल कानून के हिसाब से, बल्कि सामाजिक धारणा को ध्यान में रखकर फैसले ले। वजाहत खान को राहत देना गलत नहीं है, लेकिन नूपुर शर्मा और शर्मिष्ठा पनौली के साथ सख्ती से यह धारणा बनती है कि हिंदू भावनाओं को कम महत्व दिया जा रहा है। यह न केवल संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि सामाजिक सौहार्द के लिए भी खतरा है।


    अंत में, सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसलों में पारदर्शिता और निष्पक्षता सुनिश्चित करनी चाहिए। सभी धर्मों की भावनाओं का समान सम्मान और सभी के लिए समान कानूनी कार्रवाई ही भारत जैसे विविध देश में न्याय की सच्ची भावना को कायम रख सकती है।

    💬 आपको क्या लगता है — क्या भारत में न्याय के मापदंड बदल रहे हैं? अपनी राय कमेंट्स में ज़रूर बताइए!

    (लेखक दीपक कुमार, वरिष्ठ पत्रकार हैं और लोकतंत्र की रक्षा में सक्रिय जन-लेखन से जुड़े हुए हैं।) 

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